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________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास ५५ लौकिक संस्कृत वाङमय में इसका गत्यर्थ में प्रयोग नहीं मिलता ।' किन्तु हिसार जिले की ग्रामीण भाषा के 'कठे हणसे' आदि वाक्यों में इस के अपभ्रंश का प्रयोग पाया जाता है । १२. संस्कृत की 'रक्षा' धातु का 'रखना' अर्थ में प्रयोग संस्कृतभाषा में नहीं मिलता । प्राकृत में इस के अपभ्रंश 'रक्ख' धातु का ५ प्रयोग प्राय: उपलब्ध होता है । हिन्दी की 'रख' क्रिया प्राकृत की '२क्ख' का अपभ्रंश है। अतः संस्कृत की 'रक्ष' धातु का मूल अर्थ 'रक्षा करना' और 'रखना' दोनों हैं । १० इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि संस्कृत भाषा किसी समय अत्यन्त विस्तृत थी । उस का प्रभाव संसार की समस्त भाषाओं पर पड़ा । बहुत से शब्द अपभ्रंश भाषात्रों में अभी तक मूल रूप और मूल अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। कुछ अल्प विकार को प्राप्त हो गये, कुछ इतने अधिक विकृत हुए कि उन के मूल स्वरूप का निर्धारण करना भी इस समय असम्भव हो गया । अतः अपभ्रंश भाषाओं में प्रयुक्त वा तत्सम - शब्द का संस्कृत के किसी प्राचीन ग्रन्थ में व्यवहार देख कर यह १५ कल्पना करना नितान्त अनुचित है कि यह शब्द किसी अपभ्रंश भाषा से लिया गया है । यदि संसार की मुख्य मुख्य भाषात्रों का इस दृष्टि से अध्ययन और आलोडन किया जाये, तो उन से संस्कृत के सहस्रों लुप्त शब्दों का ज्ञान हो सकता है । और उस से सब भाषाओं का संस्कृत से सम्बन्ध भी स्पष्ट ज्ञात हो सकता है । नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत की संस्कृतछाया यदि उपर्युक्त दृष्टि से संस्कृतनाटकान्तर्गत प्राकृत का अध्ययन २० १. धातुप्रदीप के सम्पादक श्रीशचन्द्र चक्रवर्ती ने गत्यर्थ हन धातु का एक प्रयोग उद्धृत किया है—‘भूदेवेभ्यो महीं दत्वा यज्ञैरिष्ट्वा सुदक्षिणैः । अनुक्त्वा निष्ठुरं वाक्यं स्वर्गं हन्तासि सुव्रत || ' धातुप्रदीप पृष्ठ ७६, टि० २ । सम्भव है २५ यहां 'हन्तासि' के स्थान में 'गन्तासि' पाठ हो । साहित्य - विशारदों ने गत्यर्थ हन्ति के प्रयोग को दोष माना है । 'तुल्यार्थत्वेऽपि हि ब्रूयात् को हन्ति गति - वाचिनम्' । भामहालङ्कार ६ । २४ ॥ तथा - ' कञ्ज हन्ति कृशोदरी । अत्र हन्तीति गमनार्थे पठितमपि न तत्र समर्थम्' । साहित्य-दर्पण परि० ७, पृष्ठ ३६६ निर्णयसा० संस्क०; काव्यप्रकाश उल्लास ७ । महाभाष्य के प्रथम ३० माह्निक में लिखा है - 'गमिमेव त्वार्या: प्रयुञ्जते ' । इस से स्पष्ट है कि बहुत काल से आर्य गम के अतिरिक्त अन्य गत्यर्थक धातु का प्रयोग नहीं करते । ७
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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