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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
विवेचना - श्री नाथूराम प्रेमी ने अपने 'जैन साहित्य प्रोर इतिहास' के द्वितीय संस्करण में पृष्ठ ४४ पर पूज्यपाद और राजा दुर्विनीत के गुरुशिष्य भाव का खण्डन कर दिया है ।
प्रायः सभी वैयाकरणों ने एक विशेष नियम का विधान किया है, १० जिसके अनुसार 'ऐसी कोई घटना जो लोकविश्रुत हो, प्रयोक्ता ने उसे साक्षात् न देखा हो, परन्तु प्रयोक्ता के दर्शन का विषय सम्भव हो, अर्थात् प्रयोक्ता के जीवनकाल में घटी हो, तो उसको कहने के लिए भूतकाल में लङ् प्रत्यय होता है'
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नया प्रमाण - 'भारतीय ज्ञानपीठ काशी' से प्रकाशित जैनेन्द्र व्याकरण के प्रारम्भ में 'जैनेन्द्र शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ' प्रकरण ( पृष्ठ ४२ ) में आचार्य पूज्यपाद के काल के निश्चय के लिए नया प्रमाण उपस्थित किया था । उसे ही संक्षेप से यहां उपस्थित करते हैं -
'परोक्षे च लोकविज्ञाते प्रयोक्तुर्दर्शनविषये । "
इस नियम के निम्न उदाहरण व्याकरण-ग्रन्थों में मिलते हैंअरुणद् यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनो माध्यमिकाम् ।
महा० ३ । २।११ ॥
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श्रजयज्जत हूणान् । चान्द्र १ । २ । ८१ ।। श्ररुणन्महेन्द्रो मथुराम् | जैनेन्द्र' २ । २ । ९२ ।। श्रदहदमोघवर्षोऽरातीन् । शाक० ४ । ३ । २०८ ।। श्ररुणत्ं सिद्धवर्षोऽवन्तीम् । हैम ५ । २ । ८ ।।
इनमें अन्तिम दो उदाहरण सर्वथा स्पष्ट हैं । श्राचार्य पाल्यकीर्ति [शाकटायन] अमोघवर्ष, और प्राचार्य हेमचन्द्र सिद्धराज के काल में विद्यमान थे, इसमें किसी को विप्रतिपत्ति नहीं । परन्तु जर्त
१. कात्यायन वार्तिक । महा० ३ । २ । ११ ॥
२. पाश्चात्त्य मतानुयायियों ने 'जर्तः' के स्थान पर 'गुप्त' पाठ घड़ लिया है । द्र०- - पूर्व पृष्ठ ३६६, ३७० तथा पृष्ठ ३७० टि० १ ।
३. यद्यपि यह तथा इसके पूर्व उदाहरण क्रमशः धर्मदास और अभयनन्दी की वृत्तियों से लिये हैं, परन्तु इन वृत्तिकारों ने ये उदाहरण चन्द्र और पूज्यपाद की स्वोपज्ञ वृत्ति से लिए हैं ।
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