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________________ अष्टाध्यायो के वृत्तिकार - निर्णायक जो प्रमाण उपलब्ध होते हैं, उन में से कुछ इस प्रकार हैं१ - जैन ग्रन्थकार वर्धमान ने वि० सं० ११६७ में अपना 'गणरत्नमहोदधि' ग्रन्थ रचा उस में प्राचार्य देवनन्दी को 'दिग्वस्त्र' नाम से बहुत्र स्मरण किया है । X&? २- राष्ट्रकूट के जगत्तुङ्ग राजा का समकालिक वामन अपने ५ 'लिङ्गानुशासन' में प्राचार्य देवनन्दी - विरचित जैनेन्द्र लिङ्गानुशासन को बहुधा उद्धृत करता है ।' जगत्तुङ्ग का राज्यकाल वि० सं० ८५१-८७१ तक था । ३ –— कर्नाटककविचरित्र के कर्त्ता ने गङ्गवंशीय राजा दुर्विनीत को पूज्यपाद का शिष्य लिखा है । दुर्विनीत के पिता महाराजा प्रवि- १० नीत का मर्करा (कुर्ग ) से शकाब्द ३८८ का एक ताम्रपत्र मिला है । तदनुसार प्रविनीत वि० सं० ५२३ में राज्य कर रहा था । 'हिस्ट्री आफ कनाडी लिटरेचर' और 'कर्नाटककविचरित्र' के अनुसार महाराज दुर्विनीत का राज्यकाल वि० सं० ५३६ ५६६ तक रहा है । 3 ४ - वि० सं० ६६० में बने हुए 'दर्शनसार' नामक ग्रन्थ में १५ लिखा है सिरिपुज्जपादसीसो द्राविडसंघस्य कारगो दुट्ठो । णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्तो ॥ पंचस छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्खिण महरा जादो दाविणसंघो महामोहो || अर्थात् पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी ने विक्रम के मरण के पश्चात् ५२६ वें वर्ष में दक्षिण मथुरा वा मदुरा में द्रविड़संघ की स्थापना की थी । प्रमाणाङ्क ३ र ४ से विस्पष्ट होता है कि प्राचार्य देवनन्दी का काल विक्रम की षष्ठ शताब्दी का पूर्वार्ध है । १. व्याडप्रणीतमथ वाररुचं सचान्द्र जैनेन्द्रलक्षणगतं विविधं तथान्यत् । श्लोक ३१ । 'जैन साहित्य और इतिहास' पृष्ठ ११६ ( प्र० सं० ) । ३. वही, पृष्ठ ११६ प्र० (सं० ) । इतिहास, टि० प्र० सं० पृष्ठ ११७; द्वि० सं० पृष्ठ ४३, टि० १ ४. जैन साहित्य श्रीर २० २५
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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