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' तच्चिन्त्यमिति न्यासटीकायां प्रपञ्चितमस्माभिः' ।' पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषावृत्ति के सम्पादक दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य ५ ने पुण्डरीकाक्ष का काल ईसा की १५ वीं शती माना है ।'
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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
लिखी है। इसका उल्लेख ग्रन्थकार ने स्वयं 'कातन्त्रप्रदीप' नाम्नी कान्त्रीका में किया है । वह लिखता है ।
पुण्डरीकाक्षे विद्यासागर ने भट्टि काव्य पर कातन्त्रप्रक्रियानुसारी एक व्याख्या लिखी है । उस के अन्त के लेख से विदित होता है कि इसके पिता का नाम श्रीकान्त था । इस टीकाका वर्णन हम इस ग्रन्थ के 'काव्यशास्त्रकार वैयाकरण कवि' नामक ३० वें अध्याय में करेंगे।
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२. इन्दुमित्र (सं० ११५० वि० से पूर्ववर्ती )
इन्दुमित्र नाम के वैयाकरण ने काशिका की एक 'अनुन्यास ' नाम्नी व्याख्या लिखी थी । इन्दुमित्र को अनेक ग्रन्थकार 'इन्दु' नाम से स्मरण करते हैं । इन्दु और उसके अनुन्यास के उद्धरण माधवीय १५ धातुवृत्ति, उज्ज्वलदत्त की उणादिवृत्ति, सीरदेवीय परिभाषावृत्ति, दुर्घटवृत्ति, प्रक्रिया कौमुदी की प्रसादटीका और अमरीका सर्वस्व आदि अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । इन्दुमित्र ने अष्टाध्यायी पर पर 'इन्दुमती' नाम्नी एक वृत्ति लिखी थी, उसका उल्लेख हम पूर्व (पृष्ठ ५२३) कर चुके हैं ।
सीरदेव ने परिभाषावृत्ति में एक स्थान पर लिखा हैयत्तु तत्र स्वमतिमहिमप्रागल्भ्या वनुन्यासकारो व्याजहार वत्र
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१. भूमिका पृष्ठ १८ ।
२. इति महामहोपाध्यायश्रीमच्छीकान्त पण्डितात्मजश्रीपुण्डरीकाक्षविद्या - सागरभट्टाचार्यकृतायां भट्टिीकायां कलापदीपिकायाम्
३. पृष्ठ २०१ ।
४. पृष्ठ १, ५५, ८६
५. पृष्ठ ५,२८,८६ परिभाषासंग्रह ( पूना सं० ) में क्रमशः पृष्ठ १६१, १७६, २०५ । ६. पृष्ठ १२०, १२३, १२६ ।
७. भाग १, पृष्ठ ६१०;
८. भाग १, पृष्ठ ६१०
भाग २, पृष्ठ १४५ । भाग २, पृष्ठ ३३६ ।