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अष्टाध्यायी के वात्तिककार
आधुनिक ऐतिहासिकों की भूल-अनेक आधुनिक ऐतिहासिक 'वहीनरस्येद् वचनम्" वार्तिक में 'वहीनर' शब्द का प्रयोग देखकर वातिककार कात्यायन को उदयनपुत्र वहीनर से अर्वाचीन मानते हैं, परन्तु यह मत सर्वथा अयुक्त है । वैहिनरि अत्यन्त प्राचीन व्यक्ति हैं। इसका उल्लेख बौधयन श्रौतसूत्र के प्रवराध्याय (३) में मिलता ५ है । वहां उसे भृगवंश्य कहा है । मत्स्य पुराण १६४ । १६ में भी भृगुवंश्य वैहिनरि का उल्लेख है । वहां उसका अपना नाम 'विरूपाक्ष' लिखा है । महाभाष्यकार ने उपर्युक्त वार्तिक की व्याख्या में लिखा है
कुणरवाडवस्त्वाह नैष वहीनरः कर्ताह ? विहीनर एषः । १० विहीनो नरः कामभोगाभ्याम् । विहीनरस्यापत्यं वैहोनरिः।
अर्थात् वहीनरि प्रयोग वहीनर से नहीं बना, इसकी प्रकृति विहीनर है। कामभोग से रहित =विहीनर का पुत्र हिनरि है।
इस वार्तिक में उदयनपुत्र वहीनर का निर्देश नहीं हो सकता। क्योंकि उनके मत' में उदयनपुत्र वहीनर भी महाभाष्यकार से कुछ शताब्दी १५ पूर्ववर्ती है। अत: निश्चय ही पतञ्जलि को उदयनपुत्र का वास्तविक नाम ज्ञात रहा होगा। ऐसी अवस्था में वह कुणरवाडव की व्युत्पत्ति को कभी स्वीकर न करता । कुणरवाडव के 'काम भोग से विहीन' अर्थ से प्रतीत होता है कि वैहीनरि का पिता ऋषि था, राजा नहीं । वैहीनरि पद की व्युत्पत्ति 'वहीनर' और 'विहीनर' दो पदों से दर्शाई २० है। इससे प्रतीत होता कि वहीनर और विहीनर दोनों नाम एक ही व्यक्ति के थे । वहीनर वास्तविक नाम था, और विहीनर विहीनो नरः कामभोगाभ्यम् निर्देशानुसार औपाधिक । अपत्यार्थक शब्दों के प्रयोग अनेक बार अप्रसिद्ध शब्दों से निष्पन्न होते हैं । यथा व्यासपत्र शक के लिए वैयासकि का सम्बन्ध अप्रसिद्ध व्यासक प्रकृति के २५ साथ है, प्रसिद्ध शब्द व्यास के साथ नहीं है । जिस प्रकार कात्यायन
पाठ।
१. महाभाष्य ७।३।१॥ २. देखो पूर्व पृष्ठ १४६ टि० ३ में उद्धृत
३. वैहिनरिविरूपाक्षो रौहित्यायनिरेव च । ४. 'विहीन' शब्द से मत्वर्थीय 'र' प्रत्यय, अष्टा० ५।२।१००।
५. अर्थात् पाश्चात्यो के मत में । हमारे मत में महाभाष्यकार उदयनपुत्र ३० वहीनर से पूर्ववर्ती हैं। इसके लिये महाभाष्यकार पतञ्जलि का प्रकरण देखें ।