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अष्टाध्यायी के वृत्तिकार .. ४८५ माथुरी वृत्ति और और चान्द्र व्याकरण महाभाष्यकार पतञ्जलि ने 'अशिष्य' पद की अनुवृत्ति १२२५७ तक मानी है। माथरी वृत्ति में इस पद की अनुवत्ति श२७३ तक जाती है। अतः माथुरी-वृत्ति के अनुसार अष्टाध्यायी ॥२॥५८ से १।२।७३ तक १६ सूत्र भी अशिष्य हैं। चन्द्राचार्य ने अपने व्याकरण ५ में जिस प्रकार अष्टाध्यायी १।२।५३-५७ सूत्रस्थ विषयों का अशिष्य होने से समावेश नहीं किया, उसी प्रकार उसने अष्टाध्यायी १।२।५८-७३ सूत्रस्थ वचनातिदेश और एकशेष का निर्देश भी नहीं किया । इस से प्रतीत होता है कि प्राचार्य चन्द्रगोमी ने इन विषयों को भी अशिष्य माना है। इस समानता से विदित होता है कि चन्द्रा- १० चार्य ने अपने व्याकरण की रचना में 'माथरी-वत्ति' का साहाय्य अवश्य लिया था। महाभाष्यकार ने भी जाति और व्यक्ति दोनों को पदार्थ मान कर अष्टाध्यायी १३१४५८-७३ सूत्रों का प्रत्याख्यान किया है। सम्भव है कि पतञ्जलि ने भी इन के प्रत्याख्यान में माथरी वृत्ति का आश्रय लिया हो।
६. वररुचि (विक्रम-समकालिक) प्राचार्य वररुचि ने अष्टाध्यायी की एक वृत्ति लिखी थी। यह वररुचि वार्तिककार कात्यायन वररुचि से भिन्न अर्वाचीन व्यक्ति है । वररुचिविरचित अष्टाध्यायीवृत्ति का उल्लेख आफेक्ट ने अपने बृहत् २० सूचीपत्र में किया है । 'मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय' में इस नाम का एक हस्तलेख विद्यमान है। देखो-सूचीपत्र सन् १८८० का छपा, पृष्ठ ३४२।
परिचय • यह वररुचि भी कात्यायन गोत्र का है । 'सदुक्तिकर्णामृत' के एक २५ श्लोक से विदित होता है कि इसका एक नाम श्रुतिधर भी था।' वाररुच निरुक्तसमुच्चय से प्रतीत होता है कि यह किसी राजा का धर्माधिकारी था।' अनेक व्यक्ति इसे विक्रमादित्य का पुरोहित
१. ख्यातो यश्च श्रुतिधरतया विक्रमादित्यगोष्ठी-विद्याभवु: खलु वररुचेराससाद प्रतिष्ठाम् । पृष्ठ २६७ । २. युष्मत्प्रसादादहं क्षपितसमस्त- ३० कल्मषः सर्वसंपत्संगतो धर्मानुष्ठानयोग्यश्च संजात: । पृष्ठ ५१ (द्वि० सं०)