________________
व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता देश किया था।' ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृति खण्ड अ० ५ में लिखा है
पप्रच्छ शब्दशास्त्रं च महेन्द्रश्च बृहस्पतिम् । दिव्यं वर्षसहस्र च स त्वा दध्यौ च पुष्करे ॥२७॥ तदा त्वत्तो वरं प्राप्य दिव्यं वर्षसहस्रकम् । उवाच शब्दशास्त्रं च तदर्थं च सुरेश्वरम् ॥२८॥
व्याकरण-ग्रन्थनाम-शब्दपारायण-महाभाष्यकार ने शब्दपारायणं प्रोवाच लिखा है। भर्तृहरि ने महाभाष्य की व्याख्या में लिखा
'शब्दपारायणं' रूढिशब्दोऽयं कस्यचिद् ग्रन्थस्य । पृष्ठ २१ । इस से प्रतीत होता है कि बृहस्पति के व्याकरणशास्त्र का नाम शब्द- १० पारायण था।
प्रतिपद-पाठ का स्वरूप क्या था, यह अज्ञात है। सम्भव है एक जैसे रूपवाले नामों और पाख्यातों का संग्रह रूप रहा हो । आज भी राम आदि शब्दों और कतिपय धातुओं के रूप बालकों को स्मरण करा कर तत्सदृश रूप वाले कतिपय नामों और धातुओं का परिगणन करा १५ देते हैं।
व्याकरण मरणान्त व्याधि-न्यायमञ्जरी में जयन्त ने बृहस्पति का एक वचन उद्धृत किया है । तदनुसार प्रौशनसों (उशना-प्रोक्त शास्त्र के अध्येताओं) के मत में व्याकरण 'मरणान्त-व्याधि' कहा गया है।
१. "बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्दपारायणं प्रोवाच (१।१।१)।" यह अर्थवाद है । इस का तात्पर्य सुदीर्घकाल में है। अर्थवाद के रूप में 'दिव्य सहस्रवर्ष' भारतीय-वाङ्मय में बहुधा व्यवहृत होता है यथा___ स [प्रजापति:] भूम्यां शिरः कृत्वा दिव्यं वर्षसहस्रं तपोऽतप्यत । कठ ब्रा० २५ संकलन, अग्न्याधेय ब्रा०, पृष्ठ १७ ॥ दिव्यं सहस्रं वर्षाणाम् । चरक चि० ३।१५ ।। दिव्यं वर्षसहस्रकम् । रामा० बाल० २६।११ ॥ तथा हि श्रूयतेदिव्य वर्षसहस्रमुमया सह...। कामसूत्र टीका ११११८ ॥
२. तथा च बृहस्पतिः–प्रतिपदमशक्यत्वाल्लक्षणस्याप्यव्यवस्थितत्वात् तत्रापि स्खलितदर्शनाद अनवस्थाप्रसङ्गाच्च मरणान्तो व्याधियाकरणमिति ३० प्रौशनसा इति । न्यायमञ्जरी पुष्ठ ४१८ ।