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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
'श्रीमत्कोंकणमहाराजाधिराजस्याविनीतनाम्नः पुत्रेण शब्दावतारकारेण देवभारतीनिबद्धबृहत्कथेन किरातार्जुनीयपञ्चदशसर्गटीकाकारेण दुविनीतनामधेयेन .।'
__ अर्थात् महाराजा दुविनीत ने 'शब्दावतार', 'संस्कृत की बृहत्कथा' ५ और किरातार्जुनीय के पन्द्रहवें या पन्द्रह सर्गों की व्याख्या लिखी
थी। ___ इस से प्रतीत होता है कि महाराजा दुविनीत ने 'शब्दावतार' नामक ग्रन्थ लिखा था । अनेक विद्वानों का मत है कि यह शब्दावतार नामक ग्रन्थ पाणिनीय व्याकरण की टीका है। ___हम ऊपर लिख चके हैं कि प्राचार्य पूज्यपाद ने भी पाणिनीय व्याकरण पर 'शब्दावतार' संज्ञक एक ग्रन्थ रचा था। महाराज दुर्विनीत-विरचित ग्रन्थ का नाम भी उपर्युक्त दानपत्र में 'शब्दावतार' लिखा है।
महाराज दुविनीत प्राचार्य पूज्यपाद का शिष्य है, यह पूर्व लिखा १५ जा चुका है। गुरु-शिष्य दोनों के पाणिनीय व्याकरण पर लिखे ग्रन्थ
का एक ही नाम होने से यह सम्भावना होती है कि आचार्य पूज्यपाद ने ग्रन्थ लिख कर अपने शिष्य के नाम से प्रचरित कर दिया हो।
८. चुल्लि भट्टि (सं० ७०० वि० से पूर्व)
चुल्लि भट्टि विरचित 'अष्टाध्यायी-वृत्ति का उल्लेख जिनेन्द्रबुद्धिन २. कृत न्यास और उसकी तन्त्रप्रदीप नाम्नी टीका में उपलब्ध होता है।
काशिका के प्रथम श्लोक की व्याख्या में न्यासकार लिखता है___ 'वृत्तिः पाणिनीयसूत्राणां विवरणं चुल्लिभट्टिनिलू रादिविर: चितम् ।
इस वचन से व्यक्त होता है कि 'चुल्लि भट्टि' और 'निज़र' २५ विरचित दोनों वृत्तियां काशिका से प्राचीन हैं।
१. पं० कृष्णमाचार्यविरचित 'हिस्ट्री प्राफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर' पृष्ठ १४० में उद्धृत ।
२. न्यास भाग १, पृष्ठ ।