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संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास
जैनेन्द्र नाम का कारण
अनुश्रुति - विनय विजय और लक्ष्मीवल्लभ आदि १८ वीं शती के जैन विद्वानों ने भगवान् महावीर द्वारा इन्द्र के लिए प्रोक्त होने से इसका नाम जैनेन्द्र हुआ ऐसा माना हैं । डा० कीलहार्न ने भी कल्पसूत्र की समय सुन्दर कृत टीका और लक्ष्मीवल्लभ कृत उपदेश- मालाकर्णिका के आधार पर इसे महावीरप्रोक्त स्वीकार किया है।'
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हमारे विचार में ये सब लेख जैनेन्द्र में बर्तमान ' इन्द्र' पद की भ्रान्ति से प्रसूत हैं ।
वास्तविक कारण - जैनेन्द्र का अर्थ है - जिनेन्द्रेण प्रोक्तम् ग्रर्थात् जिनेन्द्र द्वारा प्रोक्त । जैनेन्द्र व्याकरण देवनन्दी प्रोक्त है, यह पूर्णतया प्रमाणित हो चुका है । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि प्राचार्य देव१५ नन्दी पर नाम पूज्यपाद का एक नाम जिनेन्द्र भी था ।
जैनेन्द्र व्याकरण के दो संस्करण
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हरिभद्र ने आवश्यकीय सूत्रवृत्ति में और हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश में महावीर द्वारा इन्द्र के लिए प्रोक्त व्याकरण का नाम ऐन्द्र है ऐसा लिखा है । '
जैनेन्द्र व्याकरण के सम्प्रति दो संस्करण उपलब्ध होते हैं । एक प्रौदीच्य, दूसरा दाक्षिणात्य । प्रौदीच्य संस्करण में लगभग तीन
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सहस्र सूत्र हैं, और दाक्षिणात्य संस्करण में तीन सहस्र सात सौ सूत्र २० उपलब्ध होते हैं । दाक्षिणात्य संस्करण में न केवल ७०० सूत्र ही अधिक हैं, अपितु शतश: सूत्रों में परिवर्तन और परिवर्धन भी उपलब्ध होता हैं । प्रौदीच्य संस्करण की अभयनन्दी कृत महावृत्ति में बहुत से वार्तिक मिलते हैं, परन्तु दाक्षिणात्य संस्करण में वे वार्तिक प्रायः सूत्रान्तर्गत हैं । अतः यह विचारणीय हो जाता है कि पूज्यपाद२५ विरचित मूल सूत्रपाठ कौन सा है ।
जैनेन्द्र का मूल सूत्रपाठ
जैनेन्द्र व्याकरण के दाक्षिणात्य संस्करण के संपादक पं० श्रीलाल शास्त्री ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि दाक्षिणात्य संस्करण
१. 'जैन साहित्य और इतिहास' पृष्ठ २२-२४ (द्वि० सं०) ।