________________
३७०
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
सम्भव है, हेमचन्द्र का संकेत उसी जर्त राजा की प्रोर हो, जिसकी हूणों की विजय का उल्लेख चान्द्रव्याकरण की वृत्ति में मिलता है । रमेशचन्द्र मजुमदार ने चान्द्रव्याकरण के 'प्रजयत् जत हूणान्' पाठ को बदल कर 'श्रजयद् गुप्तो हूणान्' बना दिया है ।" यह भयङ्कर ५ भूल है । अनेक विद्वानों ने मजुमदार महोदय का अनुकरण करके चन्द्रगोमी के श्राश्रयदाता : अभिमन्यु का काल गुप्तकाल के अन्त में विक्रम की पांचवी शताब्दी में माना है । और उसी के आधार पर वाक्यपदीयकार भर्तृहरि को भी बहुत अर्वाचीन बना दिया है । पाश्चात्य मतानुयायी प्रपने काल-विषयक आग्रह को सिद्ध करने के १० लिये प्राचीन ग्रन्थों के पाठों को किस प्रकार बदलते हैं, यह इस बात का एक उदाहरण है । पाठ बदलते समय मूल पाठ का निर्देश भी न करता, उनकी दुरभिसन्धि को सूचित करता है ।
इस प्रकार महाभाष्यकार को महाराज पुष्यमित्र का समकालिके मानने पर वह भारतीय गणनानुसारे विक्रम से लगभग १२०० वर्ष १५ पूर्ववर्ती अवश्य है ।
महाभाष्यकार को पुष्यमित्र का समकालिक मानने में एक कठिनाई भी है । उसका यहां निर्देश करना आवश्यक हैं इससे भावी इतिहास शोधकों को विचार करने में सुगमता होगी ।
हम पूर्व लिख चुके हैं कि वायु पुराण ६६।३१९ के अनुसार महा२० राज उदयी ने गङ्गा के दक्षिणकूल पर कुसुमपुर नगर बसाया था, वही कालान्तर में पाटलिपुत्र के नाम से विख्यात हुआ, ऐसा साम्प्रतिक ऐतिहासिकों का मत है । गङ्गा के दक्षिणकूल पर स्थति होने
१. ए न्यू हि० आफ दि इ० पी० भाग ६, पृष्ठ १६७ । यही भूल डा० वेल्वाल्कर ने 'सिस्टम्स् ग्राफ संस्कृत ग्रामर पृष्ठ ५८ पर तथा विश्वेश्वरनाथ २५ रेऊ ने 'भारत के प्राचीन राजवंश' पृष्ठ २८८ पर की है । 'जैन सत्यप्रकाश' वर्ष ७ दीपोत्सवी अंक पृष्ठ ८० पर भी यही भूल है । आश्चर्य की बात तो यह है कि चान्द्रवृत्ति में स्पष्ट जर्त पाठ है । उस मूल पाठ को किसी ने भी देखने का यत्न नहीं किया। इस का नाम है अन्धपरम्परा अथवा 'गतानुगति को लोकः' । २. श्री पं० भगवद्दत्तजी कृत भारतवर्ष
३० का इतिहास द्वितीय संस्करण पृष्ठ ३२५ ।
३. देखो - गुप्त साम्राज्य का इतिहास, द्वितीय भाग, पृष्ठ १५६.