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आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ७०१ जीवराज दोशी ने प्राचार्य मलयगिरि का जो परिचय अंग्रेजीभाषानिबद्ध भूमिका में दिया है, प्रधानतया उसी के आधार पर हम मलयगिरि का परिचय दे रहे हैं
परिचय वंश- सम्भवतः मलयगिरि प्राचार्य मूलतः वैदिक मतानुयायी ५ ब्राह्मण कुल के थे । वैदिक मतानुयायी रहते हुए ही उन्होंने १२ वर्ष की अवस्था में संन्यास लिया था। इस अनमान का आधार नाम के अन्त में प्रयु वैत गिरि शब्द है। यह ब्राह्मण संन्यासियों के दण्डी आदि १० प्रसिद्ध विभागों में अन्यतम है। संन्यास के सात वर्ष पश्चात् मलयगिरि जैन साधु बमे। इन्होंने अपने गुरु वा गच्छ आदि का १० उल्लेख किसी ग्रन्थ में नहीं किया, ना ही अन्य स्रोतों से इस विषय की जानकारी प्राप्त होती हैं। ..
जन्म-काल- मलयगिरि का जन्म श्री दोशी जी ने वि० सं० ११८८ माना है। नाना हा .....
..... . देश - मलयगिरि-विरचित जैन आगमों की टीकात्रों में प्रयुक्त १५ शब्दविशेषों के आधार पर श्री देशी जी ने इनका जन्मस्थान सौराष्ट्र स्वीकार किया है।
काल-जिनमण्डनगपि ॥१५ वीं शती वि०) विरचित 'कुमारपाल-प्रबन्ध' में लिखा है कि प्राचार्य हेमचन्द्र, ने. देवेन्द्र शर्मा सूरि और मलयगिरि के साथ गौड़देश के लिये प्रस्थान किया, और वे खिल्लुर २० ग्राम में पहुंचे।
शब्दानुशासन-रचनाकाल- पुराने वैयाकरणों ने स्वकाल-बोधक विशिष्ट उदाहरण जैसे अपने शब्दानुशासनों में दिये हैं, उसी प्रकार मलयगिरि ने भी स्याते श्वे (कृदन्त ३ । २३) सूत्र की वृत्ति में अदहदरातीन कुमारपालः विशिष्ट उदाहरण दिया है । इस से स्पष्ट २५ है कि मलयगिरि कुमारपाल के विसी युद्धकाल के समय विद्यमान थे। कुमारपाल ने सं० १२०७ में शाकम्भरि के राजा को पराजित किया था। उसने वि० सं० १२१७-१२२७ के मध्य मल्लिकार्जुन पर
... १. चित्तौड़ के समिद्ध श्वर मन्दिर का सं० १२०७ का शिलालेख । इसमें शाकम्भरिराज विजयवाले वर्ष में ही कुमारपाल का यहां पूजार्थ पाना लिखा ३०