________________
७०२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास विजय प्राप्त की थी, ऐसा ऐतिहासिकों का मत है। चन्द्रावतीराज विजय इन दोनों के मध्य मानी जाती है। निश्चय ही कुमारपाल की इन तीन प्रधान विजयों में से किसी एक की ओर मलयगिरि का संकेत है, अथवा अरातीन बहवचन से यह भी सम्भावना हो सकतो है कि इस उदाहरण में कुमारपाल की तीनों प्रधान विजयों का संकेत है। इस प्रकार मलयगिरि द्वारा प्रस्तुत व्याकरण और उसकी स्वोपज्ञ टीका की रचना का काल वि० सं० १२२७ के पश्चात् स्वीकार किया जा सकता है। श्री दोशी जी ने भी लिखा है कि प्राचार्य हेमचन्द्र के
निर्वाण (सं० १२२६) से कुछ पूर्व मलयगिरि ने स्वीय शब्दानुशासन १० की रचना की थी। दोशी जी के इस लेख में १४ वर्ष की अवस्था में
शब्दानुशासन की रचना बताई गई है। निश्चय ही यहां fourty के स्थान में fourteen शब्द का प्रयोग अनवधानतामूलक अथवा मुद्रणप्रमादजन्य है क्योंकि सं० ११८८ में जन्म मानने और आचार्य हेम
चन्द्र के निर्वाणकाल सं० १२२६ से पूर्व व्याकरण-रचना स्वीकार १५ करने पर ४० वर्ष की अवस्था में ही व्याकरण-रचना सिद्ध होती है ।
निर्वाण - मलयगिरि का कितने वर्ष की अवस्था में कब निवाण हा, इसका कोई संकेत प्राप्त नहीं होता । मलयगिरि ने जैन आगमों तथा अन्य जैन 'ग्रन्थों पर जो लगभग दो लक्ष श्लोक परिमाण का
वृत्ति-वाङमय लिखा, उसमें स्वीय शब्दानुशासन के सूत्रों का निर्देश २० होने से स्पष्ट है कि यह अति विस्तृत वृत्ति-वाङ्मय शब्दानुशासन की
रचना (सं० १२२८) के पश्चात् लिखा गया है । इतने विशाल वृत्तिवाङमय को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि प्राचार्य मलयगिरि शब्दानुशासन की रचना (सं० १२२८) के पश्चात् २०-२५ वर्ष
अवश्य जीवित रहे होंगे। अतः हमने प्राचार्य मलयगिरि का काल सं० २५ ११८८-१२५० वि० तक सामान्यरूप से माना है।
शब्दानुशासन प्राचार्य मलयगिरि ने स्व शब्दानुशासन प्रक्रियाक्रमानुसार सन्धि नाम प्राख्यात कृदन्त और तद्धित ५ भागों में विभक्त करके लिखा है । प्रत्येक विभाग में पादसंज्ञक अवान्तर विभाग हैं, जिनकी गया है। नाडेल ग्राम के सं० १२१३ के शिलालेख में भी इस विजय का वर्णन मिलता है।