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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
इन्हें पार्षद और पारिषद भी कहा जाता है। प्राचीन काल में इनकी संख्या बहुत थी। इस समय ये प्रातिशाख्य उपलब्ध होते हैं-शौनककृत ऋक्प्रातिशाख्य कात्यायनविरचित शुक्लयजुःप्रातिशाख्य, कृष्ण
यजुः के तैत्तिरीय और मैत्रायणोयप्रातिशाख्य, सामवेद का पुष्पसूत्र, ५ और शौनकप्रोक्त अथर्व प्रातिशाख्य । मैत्रायणीय प्रातिशाख्य इस समय
हस्तलिखित रूप में ही प्राप्त होता है। इनके अतिरिक्त ऋग्वेद का आश्वलायन, शांखायन और बाष्कल प्रातिशाख्य तथा कृष्णयजुः का चारायणीय प्रातिशाख्य प्राचीन ग्रन्थों में उद्धृत हैं। इन में से कौन सा प्रातिशाख्य पाणिनि से प्राचीन है और कौनसा अर्वाचीन, यह कहना कठिन है । परन्तु शौनकीय शांखायन और बाष्कलीय ऋक्प्रातिशाख्य निश्चय ही पाणिनि. से पौवकालिक है। पाणिनोय गणपाठ ४ । ३ । ७३ में एक पद 'छन्दोभाषा' पढ़ा है। विष्ण मित्र ने ऋक्प्रातिशाख्य की वर्गद्वय-वृत्ति में छन्दोभाषा का अर्थ वैदिकभाषा
किया है। १५ . निरुक्त-दुर्गाचार्य (विक्रम ६०० से पूर्व) ने अपनी निरुक्त
वृत्ति में लिखा है-'निरुक्तं चतुर्दशप्रभेदम्", अर्थात् निरुक्त १४ प्रकार का है । यास्क ने अपने निरुक्त में १२, १३ प्राचीन नरुक्त आचार्यों का उल्लेख किया है। पाणिनि ने किसो विशेष निरुक्त
वा नरुक्त आचार्य का उल्लेख नहीं किया । गणपाठ ४।२।६० में २० केवल 'निरुक्त' पद का निर्देश मिलता है। यास्कः, यास्को, यस्काः'
पदों की सिद्धि के लिये पाणिनि ने 'यस्कादिभ्यो गोत्रे" सूत्र को रचना की है। यास्कीय निरुक्त में उद्धृत नैरुक्ताचार्यों के अनेक नाम पाणिनीय गणपाठ में मिलते हैं । यास्कीय निरुक्त में निर्दिष्ट
१. पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि । निरुक्त १।१७।। सर्ववेदपारिषदं २५ हीदं शास्त्रम् । महा० ६॥३॥१४॥
२. इन प्रातिशाख्यों तथा एतत् सदृश ऋक्तन्त्रादि अन्य वैदिक व्याकरणग्रन्थों के प्रवक्तामों और व्याख्याताओं का इतिहास इसी ग्रन्थ के द्वितीय भाग, अ० २८ में देखिए।
३. छन्दोभाषा पद के विविध अर्थों के लिए देखिए हमारा 'वैदिक३० छन्दोमीमांसा' ग्रन्थ, पृष्ठ ३८-४५ (द्वि० सं०)।
४. पृष्ठ ७४, आनन्दाश्रम पूना संस्क०। ५. अष्टा० २।४।६३॥