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________________ ५८ महाभाष्यप्रदीप के व्याख्याकार ४५७ समान रूप से मिलता है। द्वितीय आह्निक के अन्त में प्रथम (च) मातृका को छोड़ कर अन्यों में पूर्ववत् ही उल्लेख मिलत है । तृतीय आह्निक के अन्त में च-छ-ट संकेतित मातृकामों में 'श्रीरामचन्द्रसरस्वतीविरचिते' उपलब्ध होता है। चतुर्थ आह्निक की उपलब्ध च-छ-झ ञ ट संज्ञक पांचों मातृकानों में तथा पञ्चम पाह्निक की ५ उपलब्ध चार मातृकानों में आह्निक के अन्त में नाम का निर्देश नहीं है। च-छ-त्र संकेतित तीन मातृकाओं में षष्ठ आह्निक के अन्त में 'श्रीरामचन्द्रसरस्वतीविरचिते' निर्देश मिलता है । सप्तम अष्टम आह्निक की चारों मातृकाओं में लेखक का नाम नहीं है। नवम आह्निक के अन्त में च-छ मातृकाओं में लेखक के नाम का निर्देश १० नहीं है । ञ संकेतित मातृका में 'सत्यानन्दशिष्येश्वरानन्दविरचिते' लेख उपलब्ध होता है। ट मातृका में 'श्रीरामचन्द्रसरस्वतीविरचिते' ऐसा ही निर्देश मिलता है।" इसका सार इस प्रकार है लघुविवरण के रचयिता का नाम कहीं 'रामचन्द्र सरस्वती' १५ लिखा है तो कहीं 'अमरेश्वरभारतो-शिष्य रामचन्द्रसरस्वती अपर नाम ईश्वरानन्द' उपलब्ध होता है। बृहविवरण के कर्ता का नाम कहीं 'सत्यानन्दशिष्य ईश्वरानन्द' लिखा है तो कहीं 'रामचन्द्रसरस्वती'। नामसांकर्य में सम्पादक का विचार-'अचः परस्मिन् पूर्वविधौ' २० (११११५७) सूत्र के शब्दकौस्तुभ में लघुविवरणकार और बृहद्विवरणकार के भिन्न-भिन्न मतों का उल्लेख' होने से इन दोनों ग्रन्थों का भिन्न कर्तृत्व स्वरसतः प्रतीत होता है। हस्तलेखों में विद्यमान नाम-सांकर्य के निम्न समाधान प्रस्तुत किये हैं १. महाभाष्यप्रदीप व्याख्यानानि, उपोद्घात, प्रथम भाग, पृष्ठ Xv २५ (१५) । अन्तरङ्गपरिभाषाया निरपवादत्वाद् प्रसिद्धपरिभाषास्तु नाजानन्तर्ये इति सापवादत्वाद् उभयोरवकाशवतो विप्रतिषेधसूत्रस्थं भाष्यं त्वम्युच्चयपरमेवेति भागवृत्तिकाराः, कैयटलघुविवरणकारादयोऽप्येवम् । वृद्धविवरणकारस्तुनाजानन्तर्य इति परिभाषा मास्तु. तज्ज्ञापकताया यत्संमतं तेनासिद्धपरिभाषाया अनित्यत्वमेव ज्ञाप्यते । शब्दकौस्तुभ ११११५७, २६० ।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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