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________________ सस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सुन्दर मुद्रण की व्यवस्था की, उसके लिये भी मैं आपका विशेष कृतज्ञ हूं। स्वाध्याय सब से महान 'सत्र' है। अन्य सत्रों की समाप्ति जरावस्था में हो जाती है, परन्तु इस सत्र की समाप्ति मृत्यु से ही होती है। मैंने इसका व्रत अध्ययनकाल में लिया था । प्रभु की कृपा से गृहस्थ होने पर भी वह सत्र अभी तक निरन्तर प्रवृत्त है। यह अनुसन्धानकार्य उसी का फल है। मेरे लिये इस प्रकार का अनुसन्धानकार्य करना सर्वथा असंभव होता, यदि मेरी पत्नी यशोदादेवी इस महान् सत्र में अपना पूरा सहयोग न देती । उसने आजकल के महाघकाल में अत्यल्प आय में सन्तोष, त्याग और तपस्या से गृहभार संभाल कर वास्तविक रूप में सहर्मिणीत्व निभाया, अन्यथा मुझे सारा समय अधिक द्रव्योपार्जन की चिन्ता में लगाकर इस प्रारब्ध सत्र को मध्य में ही छोड़ना पड़ता। क्षमा-याचना बहुत प्रयत्न करने पर भी मानुष-सुलभ प्रमाद तथा दृष्टिदोष आदि के कारणों से ग्रन्थ में मुद्रण-सम्बन्धी अशुद्धियां रह गयी हैं। अन्त के १६ फार्मों में ऐसी अशुद्धियां अपेक्षाकृत कुछ अधिक रही हैं, क्योंकि ये फार्म मेरे काशी आने के बाद छपे हैं। छपते-छपते अनेक स्थानों पर मात्राओं और अक्षरों के टूट जाने से भी कुछ अशुद्धियां हो गयी हैं । आशा है पाठक महानुभाव इसके लिये क्षमा करेंगे। ऐतिह्मप्रवणश्चाहं नापवाद्यः स्खलन्नपि । नहि सद्वर्त्मना गच्छन् स्खलितेष्वप्यपोद्यते ॥ प्राच्यविद्या-प्रतिष्ठान मोती झील-फाशी मार्गशीर्ष- सं० २००७ ) विदुषां वशंवद: युधिष्ठिर मीमांमक १. द्र०-जरामयं वा एतत् सत्रं यदग्निहोत्रम् । जरया ह बा एतस्मान्मुच्यते मृत्युना वा । शत० १२ । ४।१।१ ॥
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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