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प्रथम संस्करण की भूमिका में कुछ भूल हो गई हो । किन्हीं कारणों से इस भाग में कई अावश्यक अनुक्रमणियां देनी रह गयी हैं, उन्हें हम तीसरे भाग के अन्त में देंगे ।
कृतज्ञता-प्रकाश आर्ष ग्रन्थों के महाध्यापक पदवाक्यप्रमाणज्ञ महावैयाकरण आचार्यवर श्री पूज्य पं० ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु को, जिनके चरणों में बैठकर १४ वर्ष निरन्तर आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया, भारतीय वाङमय और इतिहास के अद्वितीय विद्वान् श्री माननीय पं० भगवद्दत्तजी को, जिनसे मैंने भारतीय प्राचीन इतिहास का ज्ञान प्राप्त किया, तथा जिनकी अहर्निश प्रेरणा उत्साहवर्धन और महती सहायता से इस ग्रन्थ के लेखन में कथंचित् समर्थ हो सका, तथा अन्य सभी पूज्य गुरुजनों को, जिनसे अनेक विषयों का मैंने अध्ययन किया है, अनेकधा भक्तिपुरःसर नमस्कार करता हूं। ___ इस ग्रन्थ के लिखने में सांख्य-योग के महापण्डित श्री उदयवीर जी शास्त्री, दर्शन तथा साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान श्री पं० ईश्वरचन्द्रजी, पुरातत्त्वज्ञ श्री पं० सत्यश्रवाः जी एम० ए०, श्री पं० इन्द्रदेवजी आचार्य, श्री पं० ज्योतिस्वरूपजी, और श्री पं० वाचस्पतिजी विभु (बुलन्दशहर निवासी) आदि अनेक महानुभावों से समय-समय पर बहुविध सहायता मिली। मित्रवर भी पं० महेन्द्रजी शास्त्री (भूतपूर्व संशोधक वैदिक यन्त्रालय, अजमेर) ने इस ग्रन्थ के प्रूफसंशोधन में
आदि से ४२ फार्म तक महती सहायता प्रदान की। उक्त सहयोग के लिये मैं इन सब महानुभावों का अत्यन्त कृतज्ञ हूं। ___ मैंने इस ग्रन्थ की रचना में शतशः ग्रन्थों का उपयोग किया, जिनकी सहायता के विना इस ग्रन्थ की रचना सर्वथा असम्भव थी। इसलिये मैं उन सब ग्रन्थकारों; विशेषकर श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी का, जिनके 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थ के आधार पर प्राचार्य देवनन्दी और पात्यकीर्ति का प्रकरण लिखा, अत्यन्त आभारी हूं। ____संवत् २००४ के देशविभाजन के अनन्तर लाहौर से अजमेर जाने पर आर्य साहित्य मण्डल अजमेर के मैनेजिंग डाईरेक्टर श्री माननीय बाबू मथुराप्रसादजी शिवहरे ने मण्डल में कार्य देकर मेरी जो सहायता की, उसे मैं किसी अवस्था में भी भला नहीं सकता। इसके अतिरिक्त आपने मण्डल के 'फाइन आर्ट प्रिंटिंग प्रेस' में इस ग्रन्थ के