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________________ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचार्य १४७ इन व्युत्पत्तियों के अनुसार वामन, पाल्यकीर्ति और वर्धमान तीनों के मत में प्रापिशलि के पिता का नाम 'अपिशल' था। उज्ज्वलदत्त उणादि ४।१२७ की वृत्ति में प्रापिशलि पद की व्युत्पति इस प्रकार दर्शाता है___ शारिहिंस्र, कपितकादित्वाल्लत्वम् । दुःसहोऽपिशलिः । बाह्वादि- ५ त्वादिञ्-प्रापिशलिः ।' इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रापिशलि के पिता का नाम 'अपिशलि' होना चाहिये, परन्तु बाह्वादिगण' में 'अपिशलि' पद का पाठ न होने से उज्ज्वलदत्त की व्युत्पत्ति चिन्त्य हैं। अपिशल शब्द का अर्थ-पिशल का अर्थ है क्षुद्र, अतः अपिशल का १० अर्थ होगा महान् । वर्धमान ने अपिशल का अर्थ 'कुल-प्रधान' किया है। तदनुसार इसकी व्युत्पत्ति पिश अवयवे-कल(प्रोणादिक)प्रत्ययः, पिश्यत इति पिशलः क्षुद्रः न पिशलोऽपिशल' होगी । वाचस्पत्यकोश में 'अपिशलते इति अपिशलः, अच्, व्युत्पत्ति लिखी है । नामान्तर-आपिशलि के लिए प्रापिशल नाम का व्यवहार परोक्ष १५ रूप में उपलब्ध होता है । यथा १. शिक्षा प्रापिशलीयादिका ! काव्यमीमांसा, पृष्ठ ३ । २. तथेत्यापिशलीयशिक्षादर्शनम् । वाक्यपदीय वृषभदेव टीका, भाग १, पृष्ठ १०५। . इन प्रयोगों में प्रस्तुत प्रापिशलीय पद अणन्त प्रापिशल शब्द से २० ही छ (=ईय) प्रत्यय होकर सम्भव हो सकता है । इअन्त प्रापिशलि से इजश्च (४।२।११२) के नियम से प्रापिशल शब्द निष्पन्न होता है । अपिशल के अण् और इन दोनों सामान्य अपत्यार्थक प्रत्यय . • होकर प्रापिशल और प्रापिशलि प्रयोग उपपन्न होते हैं। स्वसा का नाम-प्रापिशलि पद क्रौड्यादिगण में पढ़ा है। तद- २५ १. तुलना करो—अपिशलिमु निविशेषः, तस्यापत्यमापिशलि:, बाह्वादित्वादिन् । उणादिकोष ४।१२६॥ २. अष्टा० ४११६६॥ ३. देखो पूर्व पृष्ठ १४६ । ४. विशेष द्रष्टव्य काशकृत्स्न प्रकरण पूर्व पृष्ठ ११६-११७ ॥ ५. अटा० ४।१।८०॥
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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