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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
आङ्गिरसायन' स्वीकार कर लिया था । वह स्वयं प्रतिज्ञापरिशिष्ट में लिखता है -
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एवं वाजसनेयानामङ्गिरसां वर्णानां सोऽहं कौशिकपक्षः शिष्यः' पार्षदः पञ्चदशसु तत्तच्छाखासु साधीयक्रमः
हमारा विचार है कि याज्ञवल्क्य का पौत्र, कात्यायन का पुत्र वररुचि कात्यायन प्रष्टाध्यायी का वार्तिककार है । इसमें निम्न हेतु हैं१. काशिकाकार ने 'पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु " सूत्र पर आख्यानों के आधार पर शतपथ ब्राह्मण को अचिरकालकृत लिखा है । परन्तु वार्तिककार ने 'याज्ञवल्क्या दिभ्यः प्रतिषेधस्तुल्यकालत्वात्" में याज्ञवल्क्यप्रोक्त शतपथ ब्राह्मण को अन्य ब्राह्मणों का समकालिक कहा है। इससे प्रतीत होता कि वार्तिककार का याज्ञवल्क्य के साथ १५ कोई विशेष सम्बन्ध था । अत एव उसने तुल्यकालत्वहेतु से शतपथ को पुराणोक्त सिद्ध करने का यत्न किया है । अन्यथा पुराणप्रोक्त होने पर भी उक्त हेतु निर्देश के विना 'याज्ञवल्क्यादिः प्रतिषेधः ' इतने वार्तिक से ही कार्य चल सकता था ।
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२. महाभाष्य से विदित होता है कि कात्यायन दाक्षिणात्य था । " १. वाजसनेर्थों के दो अयन हैं— द्वयान्येव यजूंषि, आदित्यानामङ्गिरसानां च । प्रतिज्ञासूत्र (श्रोत-परिशिष्ट ) कण्डिका ६, सूत्र ४ । इन दोनों का निर्देश माध्यन्दिन शतपथ ४|४|१५ १६, २० में भी मिलता है ।
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२. प्रतिज्ञापरिष्ट के व्याख्याता अण्णा शास्त्री ने 'शिष्य' पद का सम्बन्ध भी कौशिक के साथ लगाया है, परन्तु हमारा विचार है कि शिष्य पद का सम्बन्ध 'आङ्गिरसानां वर्णानां' के साथ है। उन्होंने याज्ञवल्क्यचरित ( पृष्ठ ५५) में याज्ञवल्क्यपुत्र कात्यायन से भिन्नता दर्शाने के लिए प्रवरभेद का निर्देश किया है, परन्तु वह ठीक नहीं । श्राङ्गिरसायन को स्वीकार कर लेने पर श्राङ्गिरस आदि भिन्न प्रवरों का निर्देश युक्त है ।
यही कात्यायन शुक्ल यजुर्वेद के आङ्गिरसायन की कात्यायन शाखाका प्रवतक है । कात्यायन शाखा का प्रचार विन्ध्य के दक्षिण में महाराष्ट्र आदि प्रदेश में रहा है ।
३. प्रतिज्ञापरिशिष्ट, अण्णाशास्त्री द्वारा प्रकाशित, कण्डिका ३१ सूत्र ५ । ४. याज्ञवल्क्यचरित पृष्ठ ८७ से आगे लगा 'शुक्लयजुः' शाखा चित्रपट | ५. अष्टा० ४ | ३ | १०५ ।। ६. महाभाष्य ४ |२| ६६ ॥ ७. प्रियतद्धिता दाक्षिणात्याः । यथा लोके वेदे चेति प्रयोक्तव्ये यथा लौकिकवैदिकेषु प्रयञ्जते । अ० १, पा० १ ० १ ॥