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पाणिनोय अष्टाध्यायी में स्मृत प्राचार्य १५१ अन्य पाठों का परिचय भी मिलता है । इन के आधार पर कहा जा सकता है कि यह व्याकरण पाणिनीय व्याकरण के सदृश सर्वाङ्गपूर्ण सुव्यवस्थित तथा उससे कुछ विस्तृत था, और इस में लौकिक वैदिक उभयविध शब्दों का अन्वाख्यान था ।
आपिशल व्याकरण के उपलब्ध सूत्र शतशः व्याकरण ग्रन्थों के पारायण से हमें आपिशल व्याकरण के निम्न सूत्र उपलब्ध हुए हैं
१. उभयस्योभयोऽद्विवचनटापोः । २. विभक्त्यन्तं पदम् । ३. मन्यकर्मण्यनादरे उपमाने विभाषा प्राणिषु।' ४. चिरसाययोर्मश्च प्रगप्रायोरेच्च । ५. धेनोरजः ।
१. आपिशलिस्त्वेनमर्थं सूत्रयत्येव—'उभस्योभयोऽद्विवचनटापोः' इति । तन्त्रप्रदीप २॥३॥८॥ भारतकौमुदी भाग २, पृष्ठ ८६५ में प्रो० कालीचरण शास्त्री हुबली के लेख में उद्धृत । तुलना करो- 'केचित् पुनरेवं पठन्ति- १५ उभस्योभयोरद्विवचने ।' भर्तृहरि महाभाष्य-दीपिका, हस्तलेख, पृष्ठ २७० । पूना मुद्रित, पृष्ठ २०५।
२. कलापचन्द्र (सन्धि २०) में सुषेण विद्याभूषण ने लिखा है- 'अर्थः पदम्' पाहुरेन्द्राः, विभक्त्यन्तं पदम्' आहुरापिशलीयाः, सुप्तिङन्तम् पदम्' पाणिनीया: (देखो पूर्व पृष्ठ १४)। हैम लिङ्गानुशासन विवरण, पृष्ठ १५८ २० पर निर्दिष्ट । तुलना करो–ते विभक्त्यन्ताः पदम् । न्यायसूत्र २।२।५७। विभक्त्यन्तं पदं ज्ञेयम् । भरत नाट्यशास्त्र १४॥३६॥
३. प्रदीप २।३।१७॥ पदमञ्जरी २।३।१७, भाग १, पृष्ठ ४२७ ।। शब्दकौस्तुभ २।३।१७।। 'विभाषा प्राणिष' इत्यापिशलीयं सूत्रम् । हरिनामामृत व्याकरण कारक ३४ । प्रापिशलिवाक्येन उपमानवाचकात् ततोऽपि तिरस्कारे २५ 'चतुर्थीत्युच्यते' प्रदीपोद्योते नागेशः (२।३।१७)।
४. इत्यापिशलीयं सूत्रम् । सुपद्ममकरन्द ५।३।५१,५२॥
५. न्यास ४।२।४५, भाग १ पृष्ठ ६४३ । धातुवृत्ति धेट् धातु, पृष्ठ १६७ । धातुवृत्ति का मुद्रित पाठ अशुद्ध है । पदमञ्जरी ४।२।४५ में 'धेनुरनजिकमुत्पादयति इत्यापिशलिसूत्रम्' भाष्यपङ्क्ति को ही सूत्र बना दिया है। ३० व्याकरण दर्शनेर इतिहास पृष्ठ ५२१ में भी यही भाष्यपङ्क्ति प्रापिशलि के नाम से उद्धृत है।