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अष्टाध्यायी के वार्तिककार
नयचक्र की सिंहसूरि गणि की टीका' आदि ग्रन्थों में सौनाग के अनेक मत उद्धृत हैं।
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४. क्रोष्टा
इस आचार्य के वार्तिक का उल्लेख महाभाष्य १।१।३ में केवल ५ एक स्थान पर मिलता है । पतञ्जलि लिखता है -
परिभाषान्तरमिति च कृत्वा क्रोष्ट्रीयाः पठन्ति - नियमादिको गुणवृद्धी भवतो विप्रतिषेधेने ।
इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि क्रोष्ट्रीय वार्तिक पाणिनीय अष्टाध्यायी पर ही थे । क्रोष्ट्रीय वार्तिकों का उल्लेख अन्यत्र नहीं १० मिलता ।
५. वाडव (कुणरवाडव ? )
महाभाष्य ८।२।१०६ में लिखा है - प्रनिष्टिज्ञो वाडव: पठति 1 इस पर नागेश भट्ट महाभाष्य प्रदीपोद्योत में लिखता - सिद्धं त्विदि- १५ तोरिति वार्तिकं वाडवस्य ।
इस वार्तिककार के संबध में इससे अधिक कुछ ज्ञान नहीं ।
क्या वाडव और कुरवाडव एक है ?
महाभष्य ३।२।१४ में लिखा है-
कुणरवाडवस्त्वाह--नैषा शंकरा, शंगरेषा, । गुणातिः शब्दकर्मा २० तस्यैव प्रयोगः ।
पुनः महाभाष्य ७।३।१ में लिखा है
कृणरवाडवस्त्वाह- नैष वहीनरः, कस्तहि ? विहीनर एषः । विहीनो नर, कामभोगाभ्याम् । विहीनरस्यात्यं वैहिनरिः ।
१. ष्ठिविसिव्योल्युट् परयोर्दीर्घत्वं वष्टि भागुरिः । करोतेः कर्त्तृभावे च २५ सोनागा हि प्रचक्षते । भाग १, पृष्ठ ४१, बड़ोदा सं० ।
२. भाष्य, यकृत प्रदीय आदि ग्रन्थों के पर्यालोचन के हमें 'तत्रायथेष्ट प्रसंग:' वार्तिक वाडव आचार्य का प्रतीत होता है ।