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________________ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास " एतच्च इन्दुमित्रमतेनोक्तम् । प्रत्यय इति सूत्रे प्रत्याय्यते त्रायतेऽ र्थोऽस्मादिति प्रत्ययः । 'पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण' इति घान्तस्य प्रत्ययशब्दस्यान्वर्थस्य निषेधो ज्ञापक इति भावः । तथा च इन्दुमत्यां वृत्तावुक्तम्- 'प्रतेस्तु व्यञ्जनव्यवहितो य इति भवति निमित्तम्' इति केषाञ्चिन्मते प्रतेरपि भवति" ।" ५ १० ५२४ अनेक ग्रन्थकार इन्दुमित्र को इन्दु नाम से स्मरण करते हैं. । एक इन्दु अमरकोष की क्षीरस्वामी की व्याख्या में भो उदधृत है । परन्तु वह वाग्भट्ट का साक्षात् शिष्य आयुर्वेदिक ग्रन्थकार पृथक् व्यक्ति है। काल सीरदेव ने अपनी परिभाषावृत्ति में अनुन्यासकार और मैत्रेय के निम्न पाठ उद्धृत किये हैं । 'अनुन्यासकार - ' प्रत्ययसूत्रे अनुन्यासकार उक्तवान् प्रतियन्त्यनेनार्थानिति प्रत्यय:, एरच् ( ३|३|५६ ) इत्यच् पुंसि संज्ञायां घः १५ प्रायेण ( ३ | ३|११८) इति वा घ इति । ' i मैत्रेय - 'मैत्रेयः पुनराह - पुंसि संज्ञायां ( ३।३।११८) इति घ एव । एरच् ( ३।३।५९ ) इत्यच् प्रत्ययस्तु करणे ल्युटा बाधितत्वान्न शक्यते कर्त्तम् न च वा सरूपविधिरस्ति, कृ ग्ल्युडित्यादिवचनात्' ।' यद्यपि विट्ठल द्वारा ऊपर उद्धृत अंश प्रतुन्यासकार 'उद्धृत वचन से पर्याप्त मिलता है, तथापि इन्दुमत्यां वृत्तौ और अनुन्यासकार रूप नामभेद से अष्टाध्यायी की वृत्ति और अनुन्यास दोनों ग्रन्थों की रचना इन्दुमित्र ने की थी, यह मानना ही उचित है । के नाम २० से पूर्वोद्धृत अनुन्यासकार और मैत्रेय दोनों के पाठों की पारस्परिक तुलना से स्पष्ट विदित होता है कि मैत्रेयरक्षित अनुन्यासकार २५ का खण्डन कर रहा है । अतः इन्दुमित्र मैत्रेयरक्षित से पूर्वभावी है । इन्दुमित्र के ग्रन्थ की 'अनुन्यास' संज्ञा से विदित होता है कि यह ग्रन्थ न्यास के अनन्तर रचा गया है । अतः इन्दुमित्र का काल वि० सं० १. प्रक्रिया कौमुदी, प्रसाद टीका भाग २, पृष्ठ १४५ । २. पृष्ठ ७६ । शरणदेव ने इन उपर्युक्त दोनों पाठों को अपने शब्दों में ३० उद्धृत किया है । देखो - दुर्घटवृत्ति, पृष्ठ ६७ । 1
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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