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________________ २५४ । संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास .७–कार्यो का षष्ठी से निर्दश करने के स्थान में प्रथमा से निर्देश ।' यथा अल्लोपोऽन:' में अत् । ति विशडिति में ति। व्याख्याकारों ने अत् और ति को पूर्वसूत्र निर्देशानुसार नपुंसक५ लिंग में प्रथमा का रूप न समझकर अविभक्त्यन्त पद माना है, वह चिन्त्य है। अष्टाध्यायी के पादों की संज्ञाएं अष्टाध्यायी के प्रत्येक पाद की विभिन्न संज्ञाएं उस उस पाद के प्रथम सूत्र के आधार पर रक्खी गई हैं । विक्रम की १५वीं शताब्दी से १० प्राचीन ग्रन्थों में इन संज्ञाओं का व्यवहार उपलब्ध होता है। सीरदेव की परिभाषावृत्ति से इन संज्ञाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखते हैं । यथागाङ्कुटादिपादः (१२) परिभाषावृत्ति पृष्ठ ३३' भूपादः (१३) द्विगुपादः (२१४) सम्बन्धपादः (३४) प्रङ्गपादः (६४) रावणार्जुनीय काव्य का रचयिता भीम भट्ट भी अपने ग्रन्थ में सर्वत्र 'गाकुटादिपादे' 'भूवादिपादे'प्रादि का ही व्यवहार करता हैं । ___ पाणिनि के अन्य व्याकरण ग्रन्थ पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन की पूर्ति के लिये निम्न ग्रन्थों का प्रवचन किया है। - १. पूर्वव्याकरणे प्रथमया कार्थी निर्दिश्यते । कैयट, महाभाष्य-प्रदीप ६ १११६३॥ पुनः वही ८।४७ पर लिखता है-पूर्वाचार्याः कार्यभाजान् षष्ठ्या २५ न निरदिक्षन् । २. अष्टा० ६।४११३४॥ . ३. अष्टा० ६।४।१४२॥ ४. यह पृष्ठ संख्या 'चौखम्बा सीरिज, काशी' के संस्करण की है। ५. अडियार पुस्तकालय के व्याकरण-विभाग के सूचीपत्र संख्या ३ ८४ पर निर्दिष्ट गणपाठ के हस्तलेख के आदि में लिखा है अष्टकं गणपाठश्च धातुपाठस्तथैव च । लिङ्गानुशासनं शिक्षा पाणिनीया ३० अमी क्रमात् ॥ " ६३
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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