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पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २५३ आपिशल शिक्षा में छन्दोऽनुरोध से पठित अनेक चकार उसके सूत्र में वैसे ही पड़े रह गए।
३–चकार का प्रस्थान में पाठ । यथापक्षीमत्स्यमृगान् हन्ति परिपन्थं च तिष्ठति ।' ४--प्राचीन प्रत्यय आदि के प्रयोग । यथाप्राङि चापः। प्रौङ प्रापः । ५--प्राचीन संज्ञाओं का निर्देश । यथाउभयथर्वा । अन्यतरस्याम् ।। गोतो णित् । यूस्त्र्याख्यौ नदी। ६-प्राचीन धात्वादि का निर्देश था। यथाश्नसोरल्लोपः सूत्र में प्रापिशल ‘स भुवि" धातु का ।
१. इसी प्रकार प्राचीन इलोकात्मक सूत्रों से पाणिनीय सूत्रों में पाए हुए निष्प्रयोजन चकारों को दृष्टि में रखकर पतञ्जलि ने कहा है- 'एवं तर्हि सर्व चकाराः प्रत्याख्यायन्ते।' महा० १ । ३।६६ ॥
२. अष्टा० ४।४।३५, ३६ । द्र० पूर्व पृष्ठ २५० । इसी प्रकार चकार १५ का अस्थान में प्रयोग पाणिनीय धातुपाठ में मिलता है। यथा 'चते चदे च याचने' (क्षीरतरङ्गिणी ११६०८) । इस पर विशेष विचार के लिये क्षीरतरङ्गिणी के उक्त पाठ पर हमारी टिप्पणी, तथा इसी ग्रन्थ के द्वितीय भाग . में २१ वां अध्याय देखें। ३. अष्टा० ७३।१०५॥
४. अष्टा० ७।१।१८॥ ५. अष्टा० ८।३।८।।
६. अष्टाध्यायी में बहुत प्रयुक्त। ७. अष्टा० ७११६०॥ इस सूत्र में प्रोकारान्तों की 'गो' संज्ञा प्राचीन 'प्राचार्यों की है। द्र० पूर्व पृष्ठ ८६ ।।
८. अष्टा० १ । ४ । ४॥ नदी संज्ञा प्राचीन आचार्यों की है। द्र० . पूर्व पृष्ठ ८५, पं० १७-२७ ॥
६. अष्टा० ६।४।१११॥
१०. सकारमात्रमस्तिघातुमापिशलिराचार्यः प्रतिजानीते । तथाहि न तस्य पाणिनिरिव 'अस् भुवि' इति गणपाठः । किं तर्हि 'स भुवि' इति स पठति । न्यास ११३।२२।।