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________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास भागवृत्ति के रचयिता का नाम भर्तृहरि स्वीकार कर लें, तब भी ये दोनों ग्रन्थ एक व्यक्ति की रचना नहीं हो सकते । इन दोनों की विभिन्नता में निम्न हेतु हैं १-भाषावृत्ति २।४।७४ में पुरुषोत्तमदेव ने भागवृत्ति का खण्डन ५ करते हुए स्वपक्ष की सिद्ध में भट्टिकाव्य का प्रमाण उपस्थित किया है। २-भाषावृत्ति ५।२।११२ के अवलोकन करने से विदित होता है कि भागवृत्तिकार भट्टिकाव्य के छन्दोभङ्ग दोष का समाधान करता ३-भागवत्ति के जितने उद्धरण उपलब्ध हुये हैं, उनके देखने से ज्ञात होता है कि भागवृत्तिकार महाभाष्य के नियम से किञ्चिमात्र भी इतस्ततः होना नहीं चाहता, परन्तु भट्टिकाव्य में अनेक प्रयोग महाभाष्य के विपरीत हैं।' ___ इन हेतुओं से स्पष्ट है कि भट्टिकाव्य और भागवृत्ति का कर्ता एक नहीं है । १५ महाभाष्य व्याख्याता और भागवत्तिकार में भेद-भागवत्ति को भर्तृहरि की कृति मानने पर भी वह भर्तृहरि महाभाष्यव्याख्याता आद्य भर्तृहरि से भिन्न व्यक्ति है। इसमें निम्न प्रमाण हैं १--गतताच्छोल्ये इति भागवृत्तिः । गतविधप्रकारास्तुल्यार्था इति भर्तृहरिः । १. भागवृत्ति के जितने उद्धरण उपलब्ध हुए, उनका संग्रह 'भागवृत्ति. संकलनम' के नाम से प्रओरियण्टल कालेज लाहौर के मेगजीन नवम्बर १९४० के अंक में हमने प्रकाशित किये थे। देखो पृष्ठ ६८-८२ । उसका परिवहित संस्करण 'संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी' की 'सारस्वती सुषमा' पत्रिका के वर्ष ८ अङ्क १-४ अङ्कों में छपा है । इसका पुनः परिष्कृित परिवर्धित संस्करण भी हमने सं० २०२१ में स्वतन्त्र पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है। २. उक्षां प्र चक्रुर्नगरस्य मार्गान् । ३१५॥ बिभयां प्रचकारासो । ६।२।। 'व्यवहितनिवृत्त्यर्थं च' इस वार्तिक (महाभाष्य ३।१।४०) के अनुसार व्यवहित प्रयोग नहीं हो सकता । निर्णयसागर से प्रकाशित भट्टिकाव्य में क्रमशः "उक्षान प्रचक्रुर्नगरस्य मार्गान" तथा "प्रबिभयां चकारासौ" परिवर्तित पाठ छपा है । द्र० महाभाष्य ३।१।४०, निर्णयसागर संस्क० पृ० ६०, टि० ३ । ३. दुर्घटवृत्ति, पृष्ठ १६ ।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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