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अष्टाध्यायी के वार्तिककार
३१७ अर्थात्-जिस में उक्त अनुक्त दुरुक्त विषयों का विचार किया जाता है, उस ग्रन्थ को वार्तिकज मनीषी वार्तिक कहते हैं।
इसी प्रकार हेमचन्द्र, राजशेखर, नागेश, शेषनारायण, हरदत्त प्रभृति विद्वानों ने भी वार्तिक के लक्षण लिखें हैं।' __ गोल्डस्टुकर, बेवर, वरनेल, एस० सी० चक्रवर्ती, रजनीकान्त गुप्त ५ कीलहान प्रभृति ने वार्तिक के उपर्युक्त लक्षण को ध्यान में रख कर वार्तिककार कात्यायन के सम्बन्ध में जो विचार प्रकट किये गये हैं, वे सर्वथा भ्रामक है। यदि कात्यायन वस्तुतः पाणिनि का द्वेषी होता वा दोषदृष्टि-प्रधान होता तो न केवल पतञ्जलि उस के वार्तिकों पर महाभाष्य के रूप में व्याख्या लिखते और ना ही पाणिनीय १० सम्प्रदाय में वार्तिकाकार को त्रिमनि व्याकरणस्य त्रिमुनि व्याकरण के रूप में सम्मान ही मिलता ।
वस्तुतः पराशर उपपुराण का वार्तिक का लक्षण उन वार्तिक ग्रन्थों पर घटित होता है जो भाष्य ग्रन्थों पर वार्तिक लिखे गये । यथा-न्यायभाष्य पर उद्योतकर की न्यायवार्तिक, शाबरभाष्य पर १५ कुमारिल का श्लोकवातिक तथा तन्त्रवातिक आदि । ___ हरदत्त, शेष नारायण और नागेश आदि ने पराशर उपपुराण के । वार्तिक लक्षण को ही विना सोचे समझे लिखा है। नवीन वैयाकरणों का यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम् सिद्धान्त भी इन की अज्ञता को बोधित करता है। विष्णुधर्मोत्तर में वार्तिक का लक्षण इस प्रकार दर्शाया हैप्रयोजनं संशयनिर्णयौ च व्याख्याविशेषो गुरुलाघवं च।। कृतव्युदासोऽकृतशासनं च स वातिको धर्मगुणोऽष्टकश्च ॥
. १. इन लेखकों के वार्तिक लक्षणों के लिये देखिए 'व्याकरण वार्तिकएक समीक्षात्मक अध्यायन', पृष्ठ २२, २३ ।
. २५ २. इन ग्रन्थकारों के मतों के परिज्ञान के लिये 'व्याकरण वार्तिकएक समीक्षात्मक अध्यायन' का दूसरा अध्याय देखें। वहां इन विद्वानों के • मत की सम्यक् परीक्षा करके उन की भ्रान्तता भले प्रकार दर्शाई है ।
३. काशिका २॥१॥१६॥ ४. व्याकरण वार्तिक-एक समीक्षात्मक अध्यायन, पृष्ठ २३ पर उद्धृत। ३०