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संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास
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मारवाड़ी के 'पोहर' शब्द का मूल भी 'पितृघर' है ( 'तृ' लोप होकर ) । इन रूपों में गृह का 'हर' रूपान्तर मानना चिन्त्य है, क्यों कि भाषा-विज्ञान के उत्सर्ग नियम के अनुसार 'घ' का 'ह' होना सरल है, गृह का घर अथवा हर रूपान्तर प्रतिक्लिष्ट कल्पना है ।
३. युद्ध अर्थ में प्रयुक्त फारसी का 'जङ्ग' शब्द संस्कृत की 'जजि ५ युद्धे' धातु का घञ्-प्रत्ययान्त रूप है । यह 'चजो: कुः घिण्ण्यतो: " सूत्र से कुत्व होकर निष्पन्न होता है । यथा - भज् से भाग । मैत्रेयरक्षितविरचित धातुप्रदीप पृष्ठ २५ में इस शब्द का साक्षात् निर्देश मिलता मिलता है ।
४. फारसी में प्रयुक्त बाज शब्द व्रज गतौ धातु अण्प्रत्ययान्त रूप है । बवयोरभेदः यह प्रसिद्धि भारतीय शास्त्रज्ञों में भी क्वचित् विद्यमान है । तदनुसार बाज =वाज दोनों एक ही हैं ।
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५. पञ्जाबी भाषा में बरात अर्थ में व्यवहृत 'जञ्ज' शब्द भी पूर्वोक्त 'जज' धातु का घञन्त रूप है । प्राचीन काल में स्वयंवर के अवसर पर प्रायः युद्ध होते थे, अतः जञ्ज शब्द में मूल युद्ध अर्थ निहित है । इस शब्द में निपातन से कुत्व नहीं होता । यह पाणिनि के उञ्छादिगण में पठित है । भट्ट यज्ञेश्वर ने गणरत्नावली में जञ्ज का अर्थ 'युद्ध' किया है ।" उस में थोड़ी भूल है । वस्तुतः जङ्ग और जञ्ज शब्द क्रमशः युद्ध और बरात के वाचक हैं । संस्कृत गर, गल, ग्रह, ग्लह आदि अनेक शब्द ऐसे हैं, जो समान धातु और समान २० प्रत्यय से निष्पन्न होने पर भी वर्णमात्र के भेद से अर्थान्तर के वाचक होते हैं ।
६. हिन्दी में 'गुड़ का क्या भाव है' इत्यादि में प्रयुक्त 'भाव' शब्द शुद्ध संस्कृत का है । यह 'भू प्राप्तावात्मनेपदी' चौरादिक धातु से अच् ( पक्षान्तर में घञ् ) प्रत्यय से निष्पन्न होता है । सत्तार्थक भाव शब्द इस से पृथक् है, वह 'भू सत्तायाम्' धातु से बनता है ।
७. हिन्दी में प्रयुक्त ' मानता है' क्रिया की 'मान' धातु का प्रयोग जैन संस्कृत-ग्रन्थों में बहुधा उपलब्ध होता है ।"
२. गणपाठ ६।१।१६० ॥
१, अष्टा० ७।३३५२ ॥
३. ६।१।१६० । हमारा हस्तलेख पृष्ठ ३५५ ।
४. बुरातन प्रबन्धसंग्रह पृष्ठ १३, ३०, ५१, १०३ इत्यादि । प्रबन्धकोश पृष्ठ १०७ ।
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