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________________ आचार्य पानिणि से अर्वाचीन वैयाकरण प्रद्यतनी - २ । ४ । ३; ३ । २ । १० ; ६ । ४ । ११३ ॥ श्वस्तनी - ३ । ३ । १५ ।। भविष्यन्ती - ३ । २ । १२३ ; ३ | ३ | १५ ।। परोक्ष - १ । २ । २, ८ ; ३ । २ । १५ ।। समानाक्षर - १ । १ । १ : २ । २ । ३४; १ । ३ । ८ । विकरण - अनेक स्थानों में । कारित - निरु० १ । १३ ॥ कातन्त्रव्याकरण में भी इन्हीं संज्ञाओं का व्यवहार उपलब्ध होता परोक्षा ३|१|१३ है । यथा ६१ε श्रद्यतनी - ३ । १ । २२ ॥ श्वस्तनी - ३ । १ । १५ ।। भविष्यन्ती - ३ । १ । १५ ।। विकरण -- ३ | ४ | ३२ ॥ समानाक्षर - १ । १ । ३ ॥ कारित - ३ । २ । ६ ॥ इस प्रकार ह्यस्तनी, वर्तमाना, चेक्रीयित आदि अनेक प्राचीन संज्ञाओं का निर्देश कातन्त्रव्याकरण में उपलब्ध होता है । इससे प्रतीत होता है कि कातन्त्रव्याकरण पर्याप्त प्राचीन है । ६ - महाभाष्य में अनेक स्थानों पर पूर्वसूत्रों का उल्लेख है ।' १५ ६ । १ । १६३ के महाभाष्य में लिखा है (क) अथवाsकारो मत्वर्थीयः । तद्यथा - तुन्दः, घाट इति । पूर्वसूत्रनिर्देशश्च चित्त्वात् चित इति । इस पर कैयट लिखता है - यह 'चितः' निर्देश पूर्वसूत्रों के अनुसार है । पूर्वसूत्रों में जिसको किसी कार्य का विधान किया जाता है, २० उसका प्रथमा से निर्देश करते हैं ।" (ख) पुनः ८ । ४ । ७ पर कैयट लिखता है - पूर्वाचार्य जिसको कार्य करना होता है, उसका षष्ठी से निर्देश नहीं करते । पूर्वसूत्रानुसारी निर्देश पाणिनीय व्याकरण में अन्यत्र भी बहुत उपलब्ध होता है । यथा— नल्लोपोऽनः । ६ । ४ । १३४ में प्रत् का निर्देश । तिविशति । ६ । ४ । १४२ में ति का निर्देश १० १. देखो - पूर्व पृष्ठ २६० - ६१ । २. पूर्वव्याकरणे प्रथमया कार्यो निर्देश्यते । ३. पूर्वाचार्याः कार्यभाजः षष्ठ्या न निरदिक्षन्नित्यर्थः । २५
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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