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६२० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
पाणिनीय व्याख्याकार इन्हें अविभक्तिक निर्देश मानते हैं । परन्तु ये पूर्वसूत्रानुसार प्रथमान्त हैं। 'ति' निर्देश सामान्ये नपुंसकम् न्यायानुसार नपुंसक का प्रथमैकवचन है । इसी प्रकार उर्यः पाणिनीय
सूत्र में ङः रूप भी ङ का प्रथमैकवचन का है । तुलना करो आगे ५ उध्रियमाण डेयः ( २ । १ । २४) कातन्त्रसूत्र के साथ ।
पतञ्जलि और कैयट ने जिस प्राचीन शैली की ओर संकेत किया है, वह शैली कातन्त्रव्याकरण में पूर्णतया उपलब्ध होती है। उसमें सर्वत्र कार्थी (जिसके स्थान में कार्य करना हो उस) का प्रथमा विभक्ति से ही निर्देश किया है । यथा
भिस् ऐस् वा । २।१ । १८ ॥' ङसिरात् । २।१ । २१ ॥ ङस् स्य । २।१।२२ ॥ इन टा।२।१ । २३ ॥ उर्यः। २।१ । २४ ॥ (यहां 'ङ' एकारान्त प्रत्यय है) ङसिः स्मात् । २।१।२६ ॥ डिस्मिन् । २।१।२७ ।।
इससे इतना स्पष्ट है कि कातन्त्र की रचनाशैली अत्यन्त प्राचीन १५ है । पाणिनि आदि ने कार्यों का निर्देश षष्ठी विभक्ति से किया है । .
७-हम इस ग्रन्थ के प्रथमाध्याय में लिख चुके हैं कि कातन्त्र व्याकरण में 'देवेभिः पितरस्तर्पयामः, अर्वन्तौ अन्तिः, मघवन्तौ मघवन्तः, तथा दोघीङ् वेवीङ् और इन्धी धातु से निष्पन्न प्रयोगों की सिद्धि दर्शाई है। कातन्त्र ब्याकरण विशुद्ध लौकिक भाषा का व्याकरण है और वह भी अत्यन्त संक्षिप्त । अतः इस में इन प्रयोगों का विधान करना बहुत महत्त्व रखता है। महाभाष्य के अनुसार 'प्रर्वन्' 'मघवन्' प्रातिपदिक तथा दीघोङ बेवीङ और इन्धी धातु छान्दस हैं। पाणिनि इन्हें छान्दस नहीं मानता। इससे स्पष्ट है कि कातन्त्र व्याकरण की रचना उस समय हुई है जब उपर्युक्त शब्द लौकिकभाषा में प्रयुक्त होते थे। वह काल महाभाष्य से पर्याप्त प्राचीन रहा होगा। यदि कातन्त्र की रचना महाभाष्य के अनन्तर होती, तो महाभाष्य में जिन प्रातिपदिकों और धातुओं को छान्दस माना है,
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१. इस सूत्र पर विशेष विचार पूर्व पृष्ठ ३७, ३८ पर देखो। २. देखो-पूर्व पृष्ठ ३८.४१ । ३. महाभाष्य ६।४११२७, १२८; १११।६; ११२॥६॥
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