________________
पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य
१३६
है । इसके अन्तिम १० अध्यायों के अन्त में शाकल्यकृते पदे ऐसा स्पष्ट लेख है ।
शाकल्यकृते पदपाठ का जिस में निर्देश है, ऐसा एक हस्तलेख 'एशियाटिक सोसाइटी' कलकत्ता के संग्रह में चिरकाल से विद्यमान है । गवेषकों को उस का ज्ञान भी है, परन्तु एकमात्र हस्तलेख पर ५ शाकल्यकृतत्व का निर्देश मिलने से गवेषक उसे प्रामाणिक नहीं मानते थे । परन्तु अब उस से भी पुराने हस्तलेख पर 'शाकल्यकृत' का निर्देश होने से माध्यन्दिन- पदपाठ के शाकल्य प्रवक्तृत्व में कोई संदेह नहीं रहा । अतः हमारी पूर्व सम्भावना ठीक नहीं निकली ।
१०
एशियाटिक सोसाइटी का हस्तलेख अन्तिम २० अध्यायों का है । पुस्तकाध्यक्ष ने मेरे ७ जनवरी ६३ के पत्र के उत्तर में ८ फरवरी ६३ के पत्र में लिखा है कि 'यह नागराक्षरों में है, और अक्षरों की बनावट से १८ वीं शती का विदित होता है।' इस के पश्चात् पदपाठ के सम्पादन-काल में सन् १९६६ में कलकत्ता जाकर हमने स्वयं उसे भी देखा है । हमारा विचार है कि माध्यन्दिनी संहिता का पदपाठ शाकल्य प्रोक्त है।
१५
माध्यन्दिन - पदपाठ का सम्पादन- हमने देश के विभिन्न भागों से माध्यन्दिन पदपाठ के हस्तलेखों का संग्रह करके ( एक कोश वि० सं० १४७१ का है) बड़े परिश्रम से सम्पादित किया है । इस में मुख्य पाठ के साथ प्रकार के अवान्तर पाठ भी दिये हैं । प्रारम्भ में पदपाठों २० का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है, और अन्त में माध्यन्दिनपाठ से संबद्ध कई विषयों पर विचार किया है ।
माध्यन्दिन - शिक्षा - काशी से एक शिक्षासंग्रह छपा है । उस में दो माध्यन्दिनी शिक्षाएं छपी हैं। एक लघु और दूसरी बृहत् । इन में माध्यन्दिनसंहिता संबन्धी स्वर आदि के उच्चारण को व्यवस्था २५ है । ये दोनों शिक्षाएं अर्वाचीन हैं । इन का मूल वाजसनेय प्रातिशाख्य है । इस विषय में विशेष 'शिक्षा शास्त्र का
इतिहास' ग्रन्थ
में देखें ।
१३ - रौटि ( ३००० वि० पु० ) आचार्य रौढि का निर्देश पाणिनीय तन्त्र में नहीं हैं । वामन
३०