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अष्टाध्यायी के वृत्तिकार
४ - वररुचि अपने 'लिङ्गानुशासन' के अन्त में लिखता है - ' इति श्रीमदखिलवाग्विलासमण्डित - सरस्वती - कण्ठाभरण -अनेक विशरण - श्रीनरपति - विक्रमादित्य - किरीटकोटिनिघुष्टचरणारवि+ न्दनाचार्यवररुचिविरचितो लिङ्गविशेषविधिः समाप्तः ।
५ - वररुचि अपनी 'पत्रकौमुदी' के प्रारम्भ में लिखता है - विक्रमादित्यभूपस्य कीर्ति सिद्धेनिदेशतः । श्रीमान् वररुचिर्धीमांस्तनोति पत्रकौमुदीम् ॥
६ - वररुचि अपने 'विद्यासुन्दर काव्य' के अन्त में लिखता है - ' इति समस्तमही मण्डलाधिपमहाराजविक्रमादित्यनिदेशलब्धश्री+ मन्महापण्डितवररुचिविरचितं विद्यासुन्दरप्रसंगकाव्यं समाप्तम् ।
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७- लक्ष्मणसेन (वि० सं० १९७६ ) के सभापण्डित घोयी का एक श्लोक 'सदुक्तिकर्णामृत' में उद्धृत है । उसमें लिखा हैख्यातो यश्च श्रुतिधरतया विक्रमादित्यगोष्ठीविद्याभर्तुः खलु वररुचेराससाद प्रतिष्ठाम् ॥'
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<- - कालिदास अपने 'ज्योतिर्विदाभरण' २२ । १० में लिखता है - १५ धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिहशङ्क वेतालभट्टघट खर्पर कालिदासाः । ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥'
४- ८ तक के पांच प्रमाणों से वररुचि और विक्रमादित्य का सम्बन्ध विस्पष्ट है । आठवें प्रमाण में 'वराहमिहिर' का उल्लेख है । वराहमिहिर ने बृहत्संहिता' में ५५० शक का उल्लेख किया है । यह २० शालिवाहन शक नहीं है । 'शक' शब्द संवत्सर का पर्याय है।' इस तथ्य को न जान कर इसे शालिवाहन शक मान कर आधुनिक ऐतिहासिकों ने महती भूल की है। विक्रम से पूर्व नन्दाब्द, चन्द्रगुप्तान्द शुद्रकाब्द आदि अनेक शक प्रचलित थे । वराहमिहिर ने किस शक का उल्लेख किया है, यह अज्ञात है ।
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१. सदुक्तिकर्णामृत पृष्ठ २६७ ॥
२. महाभाष्य २।१।६८ में एक वार्तिक ' शाकपार्थिवादीनामुपसंख्यानमुत्तरपदलोपश्च । इसका एक उदाहरण है - शाकपार्थिवः । शाकपार्थिव वे कहाते हैं जिन्होंने स्वसंवत् चलाया । यहां शक शब्द संवत् वाचक है । प्रज्ञादित्वात् अण् होकर प्रज्ञ एव प्राज्ञः के समान शक एवं शाक: शब्द निप्पन्न होता है ।
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