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पाणिनीय अष्टाध्यायो में स्मृत आचाय १५५ ६-कातन्त्रवृत्ति की दुर्गटीका में प्रापिशलि का निम्न श्लोक उद्धृत है
प्रापिशलीयं मतं तुपादस्त्वर्थसमाप्तिर्वा ज्ञेयो वृत्तस्य वा पुनः ।
मात्रिकस्य चतुर्भागः पाद इत्यभिधीयते ॥' १०-त्रिलोचनदास कातन्त्रवृत्ति १।१।८ की पञ्जिका में प्रापिशलि का निम्न श्लोक उद्धृत करता हैतथा चापिशलीयाः पठन्तिसामीप्येऽथ व्यवस्थायां प्रकारेऽवयवे तथा।
चतुर्वर्थेषु मेधावी प्रादिशब्दं तु लक्षयेत् ॥' इनमें प्रथम उद्धरण का संबन्ध प्रापिशल-शिक्षा के साथ है। षष्ठ उद्धरण निश्चय ही आपिशल व्याकरण का है । द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पञ्चम उद्धरणों का सम्बन्ध यद्यपि आपिशल व्याकरण से है तथापि इनके मूल प्रापिशल सूत्र नहीं हैं । सम्भव है उसकी किसी वत्ति से ये वचन उद्धृत किये हों । सप्तम, अष्टम, नवम और १५ दशम उद्धरण उसके किसी कोश से लिये गए होंगे। __चतुर्थ उद्धरण की विशिष्टता -इस उद्धरण में दन्त्योष्ठ्य वकार का परिगणन कराया है। व-ब के उच्चारण दोष से संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है, उसकी निवृत्ति के लिये उक्त वचन पढ़ा गया है। अथर्व-परिशिष्टों में भी एक दन्त्योष्ठ्यविधि नाम का ग्रन्थ है। इस २० का भी यही प्रयोजन है । इस प्रकार के प्राचीन प्रयासों से ज्ञान होता है कि व-ब सम्बन्धी उच्चारण दोष अतिपुरातन हैं । ___ . आपिशल और पाणिनीय व्याकरण की समानता
प्रापिशलि के जो सूत्र ऊपर उद्धृत किये हैं, उन से यह स्पष्ट है कि आपिशल और पाणिनीय व्याकरण दोनों परस्पर में बहुत समान २५
१. कातन्त्र पृष्ठ ४६१ । कातन्त्र परिभाषा वृत्ति द्र०—परिभाषसंग्रह '(पूना) पृष्ठ ६४।
२. तुलना करो—'वाग्दिग्भूरश्मिवत्रेसु पश्वक्षिस्वर्गवारिषि । नवस्वर्थेसु मेधावी गोशणामवधारयेत् ॥' दशपादी उणादिवृत्ति २०११ में उद्धृत । इसी प्रकार के श्लोक दशपादी उणादिवृत्ति १।४७; ५।२६; ५।३० में भी उद्धृत हैं। ३०