________________
पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य
१४५
पदमञ्जरी ४।३।११५ में इस उदाहरण की व्याख्या मिलती है । अतः प्रतीत होता है कि उसके समय में काशिका ४ | ३ | ११५ में भी यह उदाहरण अवश्य विद्यमान था । काशिका के मुद्रित संस्करणों में ४ | ३ | ११५ का पाठ अशुद्ध है ।' न्यासकार २।४।२१ में इस उदाहरण की व्याख्या में लिखता है -
१६
व्याडिरप्यत्र युगपत्कालभाविनां विधीनां मध्ये दशहुष्करणानि कृत्वा परिभाषितवान् पूर्वं पूर्वं कालमिति ।
५
न्यास की व्याख्या में मैत्रेय रक्षित लिखता है - प्रथमतरं दशहुष्करणानि कृत्वा कालमनद्यतनादिकं परिभाषितवान् । हरदत्त पदमञ्जरी ४ | ३ | ११५ में इसकी व्याख्या इस प्रकार १० करता है
दुष् इत्ययं संकेतशब्दो यत्र क्रियते, यथा पाणिनीये वृदिति, तद् दुष्करणं व्याकरणं, कामशास्त्रमित्यन्ये ।
१५
न्यासकार, मंत्रेयरक्षित और हरदत्त की व्याख्याएं अस्पष्ट हैं । हरदत्त 'कामशास्त्रमित्यन्ये' लिखकर स्वयं सन्देह प्रकट करता है । अब हम अगले श्रध्याय में पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत दश प्राचार्यों का वर्णन करेंगे ।
१. काशिका का मुद्रित पाठ इस प्रकार है- 'काशकृत्स्नम् । गुरुलाघवम् । आपिशलम् । पुष्करणम् ।'
२. पं० गुरुपद हालदार ने लिखा है - सुतरामापिश लिसंबंधे जयादित्येर २० मते बुझिते हवे – प्रापिशलिस्तु युगपत्कालभाविनां विधीनां मध्ये दश हुष्करजानि कृत्वा कालमनद्यतनादिकं परिभाषितवान् । व्याकरण द० इ० प्राक्कथन, पृष्ठ ४० | यह लेख काशिका, न्यास और पदमञ्जरी से विपरीत होने से चिन्त्य है ।