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संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ३५ 'त्रयाणाम्' त्रय शब्द का । त्रि और त्रय दोनों समानार्थक हैं। प्रतीत होता है कि त्रि शब्द के षष्ठी के बहुवचन 'त्रीणाम्' का प्रयोग लोक में लुप्त हो गया, उसके स्थान में तत्समानार्थक त्रय का 'त्रयाणाम्' प्रयोग व्यवहृत होने लगा, और त्रय की अन्य विभक्तियों के प्रयोग नष्ट हो गये संस्कृत से लुप्त हुए 'त्रीणाम्' पद का अपभ्रंश 'तिहम्' ५ प्राकृत में प्रयुक्त होता है । भाषा में 'तीन्हों का प्रयोग में 'तीन्हों' प्राकृत के 'तिण्हम्' का अपभ्रंश है।
८. पाणिनि ने षष्ठयन्त से तृच् और अक प्रत्ययान्त के समास का निषेध किया है। परन्तु स्वयं 'जनिकर्तुः प्रकृतिः२; 'तत्प्रयोजको हेतुश्च आदि में समास का प्रयोग किया है। इस विषय में दो १० कल्पनाएं हो सकती हैं। प्रथम-पाणिनि ने सूत्रों में जो तृच और अक प्रत्ययान्त के समास का प्रयोग किया है, वह अशुद्ध है। दूसरातच और अक प्रत्ययान्त का षष्ठ्यन्त के साथ समास ठीक है, परन्तु पाणिनि ने अल्प प्रयोग होने से उस का समास-पक्ष नहीं दर्शाया। इनमें द्वितीय पक्ष ही युक्त हो सकता है। क्योंकि पाणिनीय सूत्र में १५ अनेक ऐसे प्रयोग हैं, जो पाणिनीय शब्दानुशासन से सिद्ध नहीं होते ।।
पाणिनि जैसा शब्दशास्त्र का प्रामाणिक प्राचार्य अपशब्दों का प्रयोग करेगा, यह कल्पना उपपन्न नहीं हो सकती। वस्तुतः ऐसे शब्द प्राचीन-भाषा में प्रयुक्त थे । रामायण महाभारत आदि में तृच् और
१. काशिका २२२॥१६॥ २. अष्टा० ११४॥३०॥
२० ३. अष्टा० ११४।५५॥
४. देखो-भामह का अलङ्कार ३१३६, ३७।। कात्यायन भी ३।१।२६ के 'स्वतन्त्रप्रयोजकत्वात्' इत्यादि वात्तिक में समस्त निर्देश करता है।
५. सूत्रवात्तिकभाष्येषु दृश्यते चापशब्दनम् ...."। तन्त्रवार्तिक, शाबरभाष्य, पूनो संस्करण भाग १, पृष्ठ २६० । सर्वदर्शनसंग्रह में पाणिनि-दर्शन में २५ लिखा है—'लोक में समास हो जाता है, परन्तु निषेध वैदिक प्रयोगों के लिये स्वरविशेष के कारण किया है।
६. यथा—पुराण ४१३।१०५, सर्वनाम १११।१७, ग्रन्थवाची-ब्राह्मण शब्द ४।३।१०५, इत्यादि । वैयाकरण इन्हें निपातन (पाणिनीय-व्यवहार) से साधु मानते हैं । यदि ये प्रयोग साधु हैं, तो पाणिनि के, तिर्यचि' (३।४।६०) ३० 'अन्वचि' (३।४।६४) आदि प्रयोग साधु लोक-व्यवहार्य क्यों नहीं ?