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________________ ३४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'शव' शब्द का प्रयोग यहां की भाषा में उपलब्ध होता है, उसी प्रकार कानीन की मूल प्रकृति कनीना का प्रयोग भी आर्यावर्तीय भाषा में न रहा हो, किन्तु उससे निष्पन्न कानीन का व्यवहार आर्यावर्तीय संस्कृत-भाषा में होता है । अवेस्ता में 'कइनीन' का व्यवहार बता रहा है कि ईरानियों की प्राचीन भाषा में 'कनीना' पद का प्रयोग होता था । पाणिनि-प्रभृति वैयाकरणों ने भारतीय-भाषा में कनीना का व्यवहार न होने से उससे निष्पन्न कानीन का सम्बन्ध तत्समानार्थक कन्या शब्द से जोड़ दिया । तदनुसार उत्तरकालीन वैयाकरण कानीन का विग्रह 'कनीनाया अपत्यम्' न करके 'कन्याया अपत्यम्' करने लगे, और कानीन की मूल प्रकृति कनीना को सर्वथा भूल गये। इस विवेचन से स्पष्ट है कि कानीन की वास्तविक मूल प्रकृति कनीना है, कन्या नहीं। ७. निरुक्त ६।२८ में लिखा है-'धामानि त्रयाणि' भवन्ति । स्थानानि, नामानि, जन्मानीति । अनेक वैयाकरण निरुक्तकार के १५ 'त्रयाणि' पद को असाधु मानते हैं, किन्तु यह ठीक नहीं है । 'त्रि' शब्द का समानार्थक 'त्रय' स्वतन्त्र शब्द है। वैदिक ग्रन्थों में इसका प्रयोग बहधा मिलता है। सांख्य दर्शन ५।११८ में भी इस का प्रयोग उपलब्ध होता है। लौकिक-संस्कृत में त्रि शब्द के षष्ठी के बहुवचन में 'त्रयाणाम्' प्रयोग होता है। पाणिनि ने त्रय आदेश का विधान २० किया है। वेद में 'त्रीणाम्' 'त्रयाणाम्' दोनों प्रयोग होते हैं। इनमें स्पष्टतया 'त्रीणाम्' त्रि शब्द के षष्ठी विभक्ति का बहुवचन है, और १. द्र० पूर्व पृष्ठ ११ । २. तुलना करो—'ब्रह्मणो नामानि त्रयाणि' । स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत उणादिकोष १११३२॥ ३. हेमचन्द्र ने उणादि ३६७ में अकारान्त 'त्रय' शब्द का साधुत्व दर्शाया २५ ४. ऋग्वेद १०।४५।२; यजुर्वेद १२।१६; २०११; ऋ० ६।२७ में प्रयुक्त 'त्रययाय्यः' में भी पूर्वपद 'त्रय' अकारान्त है । ५. द्वयोरिव त्रयस्यापि दृष्टत्वात् । ६. स्त्रयः । अष्टा० ७११५३।। ७. काशिका ७११५३।। त्रीणामित्यपि भवति । ३०
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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