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संग्रहकार व्याडि
३०१ है । उसके अनुसार उसकी किसी भागिनि का नाम 'व्याड्या' प्रतीत होता है। पाणिनि की माता का नाम दाक्षी था, यह पूर्व लिख चुके हैं।' यह पितृव्यपदेशज नाम है । इसी का व्याड्या नाम भ्रातृव्यपदेशज हो सकता है (यथा-यम यमी, रुक्मी रुक्मिणी)। दाक्षि और दाक्षायण के एक होने पर वह व्याडि की बहिन होगी, और पाणिनि उनका भानजा। ५
प्राचार्य-विकृतवल्ली नाम का एक लक्षणग्रन्थ व्याडि-विरचित माना जाता है। उसके प्रारम्भ में शौनक को नमस्कार किया है।' आर्ष ग्रन्थों में इस प्रकार की नमस्कार शैली उपलब्ध नहीं होती। अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त होगा, वा यह ग्रन्थ किसी अर्वाचीन व्याडि विरचित होगा, वा किसी ने व्याडि के नाम से इस ग्रन्थ की रचना १० की होगी। व्याडि शौनक का समकालिक है । शौनक ने अपने ऋक्प्रातिशाख्य में व्याडि का उल्लेख किया है। अतः सम्भव हो सकता है कि व्याडि ने शौनक से विद्याध्ययन किया हो। प्राचीन आचार्य अपने ग्रन्थों में अपने शिष्य के मत उद्धृत करने में संकोच नहीं करते थे । कृष्ण द्वैपायन ने अपने शिष्य जैमिनि के अनेक मत १५ अपने ब्रह्मसूत्र में उद्धृत किये हैं।'
देश-पुरुषोत्तमदेव आदि ने व्याडि का एक पर्याय विन्ध्यस्थ = विन्ध्यवासी विन्ध्यनिवासी लिखा है। तदनुसार यह विन्ध्य पर्वत का निवासी था। काशिका २।४।६० में 'प्राचामिति किम् - दाक्षिः पिता, दाक्षायणः पुत्रः' लिखा है । पाणिनि पश्चिमोत्तर सीमान्त २० प्रदेश का रहने वाला था, यह हम पूर्व लिख चके हैं। अत उसका सम्बन्धी दाक्षायण भी उसी के समीप का निवासी होगा। इस से भी प्रतीत होता है कि पुरुषोत्तमदेव के लिखे हुए व्याडि के पर्याय आर्षकालीन व्याडि के नहीं हैं । काशिका ४।१।१६० में दाक्षि को प्राग्वेशीय लिखा है। यह उस के पूर्वोक्त वचन से विरुद्ध है। हो सकता २५ है कि दो दाक्षि रहे हों। अभिनव शाकटायन व्याकरण २।४।११७ की अमोधा और चिन्तामणि वत्ति में प्राङ्ग बाङ्ग प्राग्देशवासियों के साथ दाक्षि पद पढ़ा है। क्या यह दाक्षि विन्ध्यस्थ हो सकता है ?
१. पूर्व पृष्ठ १६८। २. नत्वादौ शौनकाचार्य गुरु वन्दे महामुनिम् । ३. वेदान्तदर्शन १२२।२८, ३१; ३।२।४०; ३१४११८, ४०; ४१३॥१२॥ ३० ४. पूर्व पृष्ठ २०२।
५. क्वचिन्न भवत्येव-दाक्षिः । ६. अङ्गबङ्गदाक्षयः, आङ्कबाङ्गदाक्षयः ।