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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
गुरु-भर्तृहरि ने अपने गुरु का साक्षात् निर्देश नहीं किया । पुण्यराज ने भर्तृहरि के गुरु का नाम वसुरात लिखा है। वह लिखता है
न तेनास्मद्गुरोस्तत्र भवतो वसुरातादन्यः । पृष्ठ २८४ ।
पुनः 'प्रणीतो गुरुणास्माकमयमागमसंग्रहः' श्लोक की अवतरणिका में लिखता है-तत्र भगवता वसुरातगुरुणा ममायमागमः संज्ञाय वात्सल्यात् प्रणीतः। पृष्ठ २८६ ।
पुनः पृष्ठ २६० पर लिखता है। प्राचार्यवसुरातेन न्यायमार्गान् विचिन्त्य सः । प्रणीतो विधिवच्चायं मम व्याकरणागमः ॥
क्या भर्तृहरि बौद्ध था ? चीनी यात्री इत्सिग लिखता है कि-'वाक्यपदीय और महाभाष्यव्याख्या का रचयिता आचार्य भर्तृहरि बौद्धमतानुयायी था।
उसने सात वार प्रव्रज्या ग्रहण की थी।" १५ इत्सिग की भूल-वाक्यपदीय और महाभाष्य टीका के पर्यनु
शीलन से विदित होता है कि भर्तृहरि वैदिकधर्मी था वह वाक्यपदीय के ब्रह्मकाण्ड में लिखता है
न चागमादते धर्मस्तकण व्यवतिष्ठते ।। ४६ ॥ पुनः वह लिखता हैवेदशास्त्राविरोधी च तर्कश्चक्षुरपश्यताम् । १।१३६ ॥
वेद के विषय में ऐसे उद्गार वेदविरोधी बौद्ध विद्वान् कभी व्यक्त नहीं कर सकता । जैन विद्वान् वर्धमानसूरि भर्तृहरिकृत महाभाष्यटीका का उद्धरण देकर लिखता है
'यस्त्वयं वेदविदामलङ्कारभूतो वेदाङ्गत्वात् प्रमाणितशब्दशास्त्रः २ सर्वशमन्य उपमीयते तेन कथमेतत् प्रयुक्तम् ।
उत्पल 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी' में 'तत्र भगवद्भर्तृहरिणा ? ऽपि न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके.....' इत्यादि वाक्यपदीय की ३ कारिकाएं उद्धृत करके लिखता है
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१. इत्सिग की भारतयात्रा पृष्ठ २७४ । २. गणरत्नमहोदधि, पृष्ठ १२३ ।