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पाणिनि और उसका शब्दानुशासन
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सनिवन्तर्ध"ज्ञपिसनितनिपतिदरिद्रः (५।४।११६) । यदि काशिकाकार ने अन्यत्र चान्द्र सूत्रांशों का पाणिनीय सूत्रपाठ में प्रक्षेप किया होता, तो वह यहां पर सीधा प्रक्षेप करके केचित् पठन्ति का निर्दश न करता। ___ इन उदाहरणों से ही स्पष्ट है कि काशिकाकार पर प्रो० ५ कीलहान और डा० बेल्वाल्कर के लगाए गए आक्षेप सर्वथा निर्मूल हैं । इस विवेचना से इतना तो व्यक्त है कि काशिकाकार ने स्ववृत्ति की रचना में जहां पाणिनितन्त्र की प्राचीन वत्तियों का सहारा लिया, वहां चान्द्र आदि प्राचीन व्याकरणों और उन की वृत्तियों से भी उपयोगी अंश स्वीकार किये । परन्तु काशिकाकार ने पाणिनीय सूत्र- १० पाठ में वार्तिकांशों का अथवा चान्द्र सूत्रांशों का प्रक्षेप किया, यह आक्षेप सर्वथा निर्मूल है। काशिकाकार के संमुख पाणिनीय अष्टाध्यायी के लघु और बृहत् दोनों पाठ थे। उन में से उसने पाणिनि के बृहत् पाठ पर अपनी वृत्ति रची, और वह बृहत् पाठ प्राच्य पाठ था, यह हम अनुपद लिखेंगे। .. हमारे द्वारा इतने स्पष्ट प्रमाण उद्धृत करने पर भी डा० सत्यकाम वर्मा ने काशिका में विद्यमान पाठभेदों का उत्तरदायित्व काशिकाकार पर डालने की कैसे चेष्टा की, यह हमारी समझ में नहीं पाता । क्या इस का कारण कैयट आदि भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों के मत को विवेचना विना किये स्वीकार कर लेना नहीं है ? २०
अष्टाध्यायी का त्रिविध पाठ पूर्व पृष्ठ २३२-२३३ पर हमने पतञ्जलि और जयादित्य जैसे प्रामाणिक प्राचार्यों के उद्धरणों से यह प्रतिपादन किया है कि प्राचार्य पाणिनि ने अपने शास्त्र का अनेक बार और अनेकधा प्रवचन किया था। इस की पुष्टि काशिका ६।२।१०४ के पूर्वपाणिनोयाः, अपर- २५ पाणिनीयाः उदाहरणों से भी होती है। उस प्रवचनभेद से ही मूल शास्त्र में भी कुछ भेद हो गया था। प्राचार्य ने जिन शिष्यों को जैसा भी प्रवचन किया, उन की शिष्य-परम्परा में वही पाठ प्रचलित रहा। अष्टाध्यायी और उस के खिल पाठ (धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ) के विविध पाठों का सूक्ष्म अन्वेक्षण करके हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे ३० हैं कि आचार्य पाणिनि के पञ्चाङ्ग व्याकरण का ही विविध पाठ है।