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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
हमारे विचार में काशिकाकार पर लगाए गए ये साक्षेप नितान्त असत्य हैं । काशिकाकार ने कहीं पर भी चान्द्र सत्रपाठ को पाणिनोय सूत्रपाठ में प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न नहीं किया । अपनी इस स्थापना के लिए हम उपरि निर्दिष्ट सूत्रों को हो उपस्थित करते हैं ।
१-पाणिनि का 'अध्यायन्यायोद्याव०' सूत्र चान्द्र व्याकरण में है ही नहीं। इस सूत्र और इस के वार्तिक में पढ़े कतिपय शब्दों का ११३।१०१ की वृत्ति में बहुलाधिकार द्वारा साधुत्व कहा है । अतः उक्त पाणिनीय सूत्र का काशिकाकार का पाठ चान्द्र पाठ पर आश्रित नहीं है, यह स्पष्ट है।
२-पाणिनि के प्रासुयुवपिरपि० सूत्र का चान्द्र पाठ है-पासुयुवपिरपिलपित्रपिचमिदमः (१।१।१३३) । इस पाठ से तो यह विदित होता है कि चन्द्र के सन्मूख पाणिनि का काशिकाकार संमत प्रासयुवपिरपिलपित्रपिचमश्च पाठ ही विद्यमान था, उसी में उसने
वार्तिकोक्त दभि अंश का प्रक्षेप चम के अन्त में किया। यदि उसके १५ पास पाणिनि का प्रासुयुवपिरपित्रपिमश्च लघु सूत्रपाठ होता, तो
वह वातिकोक्त लपिदभि धातुओं को इकट्ठा एक स्थान में ही सन्निविष्ट करता, न कि लपि को मध्य में और दभि को अन्त में । इतना ही नहीं, यदि काशिकाकार यहां चन्द्र का अनुकरण कर रहा है, तो
उस ने दभि का प्रक्षेप क्यों नहीं किया ? इससे दो बातें स्पष्ट हैं, एक २. तो काशिकाकाकार ने चन्द्र का अनुकरण नहीं किया, दूसरा चन्द्र के
पास भी इस सूत्र का काशिकाकार सम्मत बृहत् पाठ ही पाणिनीय सूत्र के रूप में विद्यमान था ।
३-काशिकाकार का लाक्षारोचनाशकलर्दमाटठ्क सूत्रपाठ यदि चान्द्र पाठ पर आश्रित होता, तो काशिकाकार चन्द्रगोमी के प्रत्यक्ष पठित शकलयर्दमाद्वा सूत्र के होते हुए उसी रूप से प्रक्षेप न करके शकलकदमाभ्यामणपोष्यते ऐसी इष्टि न पढ़ता । यह इष्टि पढ़ना ही बताता है कि काशिकाकार ने चान्द्रसूत्र के पाठांश को पाणिनीय पाठ में प्रक्षिप्त नहीं किया। हां उसके मत को इष्टि के रूप में संगृहीत कर
दिया । ३० ४.--काशिकाकार ने ७।२।४६ पर लिखा है-'केचिदत्र भरज्ञपि
सनितनिपतिदरिद्राणाम् इति पठन्ति' । चन्द्रगोमी का सूत्र है