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पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २३५ शाकलम्, कार्दमम् । काशिकाकार से प्राचीन चान्द्र व्याकरण में 'शफलकर्दमाद्वा" ऐसा सूत्र पढ़ा है । यदि सूत्रपाठ में शकल कर्दम का प्रक्षेप जयादित्य ने किया होता, तो वह 'शकलकर्दमाभ्यामणपोष्यते' ऐसी इष्टि न पढ़ कर सीधा 'शकलकदमाद्वा' सूत्र बनाकर प्रक्षेप करता। ___४–काशिकाकार ७।२।४६ पर लिखता है-'केचिदत्र भरज्ञपिसनितनिपतिदरिद्राणामिति पठन्ति ।
अर्थात्-कई वृत्तिकार इस सूत्र में तनि, पति, दरिद्रा ये तीन धातुएं अधिक पढ़ते हैं। इससे स्पष्ट है कि किन्हीं प्रचीन वृत्तियों में इस सूत्र का बृहत् पाठ विद्यमान होने पर भी वामन ने उस पाठ को १० स्वीकार नहीं किया। यदि उसे प्रक्षेप करना इष्ट होता, तो वह यहां भी इन धातुओं का प्रक्षेप कर सकता था। इससे यह भी स्पष्ट है कि काशिकाकार जहां जहां बृहत् पाठ को पाणिनीय मानता था, वहीं वहीं उसने उसे स्वीकार किया है । ___काशिकाकार पर अर्वाचीनों के आक्षेप
जिस प्रकार काशिकाकार पर प्राचीन वैयाकरणों ने पाणिनीय सूत्रपाठ में वार्तिकांशों के प्रक्षेप का आक्षेप किया है, उसी प्रकार अर्वाचीन लोग भी चन्द्रगोमी के वैशिष्ट्य और उसके सूत्रपाठ को पाणिनीय पाठ में सन्निविष्ट करने का आक्षेप काशिकाकार पर लगाते हैं।
प्रो० कीलहान कहते हैं-'काशिकाकार ने चन्द्रगोमी की सामग्री का अपनी वृत्ति-रचना में पर्याप्त उपयोग किया है । इसलिए कात्यायन के वार्तिकों के आधार पर रचित चन्द्रगोमी के कुछ सूत्रों को भी काशिकाकार ने पाणिनि के मौलिक सूत्रों के स्थान पर प्रतिष्ठत कर दिया।'
प्रो० बेल्वाल्कर लिखते हैं-'चन्द्रगोमी द्वारा प्रस्तुत किए गए सम्पूर्ण संशोधनों को पाणिनीय सम्प्रदाय में अन्तर्भूत करके उपस्थित करना ही काशिकाकार का उद्देश्य था।"
१. चान्द्र ३११२॥ जैनेन्द्र शब्दार्णव-चन्द्रिका ३।२१२ में यही पाठ है।
२. 'सं० व्याकरण में गणपाठ की परम्परा और प्राचार्य पाणिनि' में ३० पृष्ठ ८२, ८३ पर उद्धृत। ३. वही, पृष्ठ १०० पर उद्धृत ।