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________________ ५६४ __संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'शिष्टप्रयोगमात्रेण न्यासकारमतेन वा । तृचा समस्तषष्ठीकं न कथंचिदुदाहरेत् ॥ सूत्रज्ञापकमात्रेण वृत्रहन्ता यथोदितः । अकेन च न कुर्वीत वृत्तिस्तदगमको यथा ॥' इन श्लोकों में स्मृत न्यासकार जिनेन्द्रबुदि नहीं है। क्योंकि उसके सम्पूर्ण न्यास में कहीं पर भी 'जनिकर्तः प्रकृतिः' (अष्टा० १।४ । ३० ) के ज्ञापक से 'वृत्रहन्ताः' पद में समास का विधान नहीं किया । न्यास के सम्पादक ने उपयुक्त श्लोकों के प्राधार पर भामह का काल सन् ७७५ ई० अर्थात् सं० ८३२ वि० माना है।' यह १० ठीक नहीं। क्योंकि सं०६८७ वि० के समीपवर्ती स्कन्द-महेश्वर ने अपनी निरुक्तटीका में भामह के अलंकार ग्रन्थ का एक श्लोक उद्धृत किया है। अतः भामह निश्चय ही वि० सं० ६८७ से पूर्ववर्ती है। __हम पूर्व (पृष्ठ ५६३) लिख चुके हैं कि व्याकरण पर अनेक न्यास ग्रन्थ रचे गये थे । अतः भामह ने किस न्यासकार का उल्लेख किया है, १५ यह अज्ञात है। इसलिये केवल न्यास नाम के उल्लेख से भामह जिनेन्द्रबुद्धि से उत्तरवर्ती नहीं हो सकता। न्यास पर विशिष्ट कार्य पं० भीमसेन शास्त्री ने पीएच० डी० की उपाधि के लिये 'न्यास-पर्यालोचन' नाम का महत्त्वपूर्ण निबन्ध लिखा है, जो सन् २० १९७६ में प्रकाशित हुआ है । इस में शास्त्री जी ने न्यासकार और उस के न्यास ग्रन्थ के सम्बन्ध में अनेक नवीन तथ्यों का उद्घाटन किया है। मतभेद - शास्त्री जी ने बड़ी प्रबलता से न्यासकार के बौद्ध होने का खण्डन और वैदिक मतानुयायी होने का मण्डन किया है । परन्तु हमें उन की युक्तियां वा प्रमाण उनके मत को स्वीकार कराने में असमर्थ रही हैं। शास्त्री जी ने न्यासकार के वैदिक मतानुयायी होने के जितने उद्धरण दिये हैं उन से हमारे विचार में उनका मत सिद्ध नहीं १. न्यास की भूमिका, पृष्ठ २७ । २. देखो-निरुक्तटीका १० । १६ । आह-तुल्यश्रुतीनां.... तन्नि३० रुच्यते । यह भामह के अलंकारशास्त्र २ । १७ का वचन है। निरुक्तटीका क पाठ त्रुटित तथा अशुद्ध है। २५
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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