________________
अष्टाध्यायी के वार्तिककार
३४५
उद्धृत है । वैयाघ्रपद्य ने एक व्याकरणशास्त्र भी रचा था । उसका उल्लेख हम पूर्व कर चुके हैं । '
૪૪
काशिका ८।२।१ पर 'शुष्किका शुष्कजङ्घा च' एक श्लोक उद्धृत है। भट्टोजि दीक्षित ने इसे वैयाघ्रपद्य विरचित वार्तिक माना है | यदि भट्टोज दीक्षित का लेख ठीक हो और उक्त श्लोक भ्रष्टा- ५ ध्याय ८ । २ । १ का प्रयोजन निदर्शक वार्तिक ही हो, तो निश्चय ही यह पाणिनि से अर्वाचीन होगा । हमारा विचार है, यह श्लोक वैयाघ्रपदीय व्याकरण का है, परन्तु पाणिनीय सूत्र के साथ भी संगत होने से प्राचीन वैयाकरणों ने इसका सम्बन्ध अष्टाध्यायी ८ । २ । १ के साथ जोड़ दिया है । महाभाष्य में यह श्लोक नहीं है । अथवा वैयाघ्रपद्य शब्द के गोत्रप्रत्ययान्त होने से दो व्यक्ति माने जा सकते हैं—- एक व्याकरण - शास्त्र प्रवक्ता और दूसरा वार्तिककार । प्राचार्य वैयाघ्रपद्य के विषय में हम पूर्व पृष्ठ १३४ - १३५ पर लिख चुके हैं ।
१०
महाभाष्य में स्मृत अन्य वैयाकरण
उपर्युक्त वार्तिककारों के अतिरिक्त निम्न वैयाकरणों के मत महाभाष्य में उद्धृत हैं
३. सौर्य भगवान्
आचार्य अष्टाध्यायी के वार्तिककार थे, वा वृत्तिकार, वा २० इनका संबन्ध किसी अन्य व्याकरण के साथ था, यह अज्ञात है ।
१. गोनदिय
१. गोनर्दो
४. कुणरवाडव
२. गोणिकापुत्र
५. भवन्तः ?
गोनर्दीय आचार्य के मत महाभाष्य में निम्न स्थानों में उद्धृत हैंगोनदयस्त्वाह- सत्यमेतत् 'सति त्वन्यस्मिन्निति' ।
१५
गोनदयस्त्वाह- कच्स्वरौ तु कर्तव्यौ प्रत्यङ्कं मुक्तसंशयो । २५ त्वकल्पितृको मत्पितृक इत्येव भवितव्यमिति । "
१. पूर्व पृष्ठ १३४ - १३५ ॥ २. अत एव शुष्किका • इति वैयाघ्रपदीयवार्तिके जिशब्द एव पठ्यते । शब्दकौस्तुभ १।१।५६ ।।
३. महाभाष्य १।१।२१ ॥
४. महाभाष्य १।१।२६।