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________________ २३ . पाणिनीय अष्टाध्यायो में स्मृत आचाय १७७ टायन ने किसी ऐसे महत्त्वपूर्ण व्याकरण की रचना की थी, जिस में सब शब्दों की धातु से व्युत्पत्ति दर्शाई गई थी। इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के कारण ही शाकटायन को वैयाकरणों में श्रेष्ठ माना गया । शाकटायन के मत को पालोचना-गार्ग्य को छोड़कर सब नैरुक्त आचार्य समस्त नाम शब्दों को आख्यातज मानते हैं । निरुक्त १११२, ५ १३ के अवलोकन से विदित होता है कि तात्कालिक वैयाकरण शाकटायन और नैरुक्तों के इस मत से असहमत थे। उन्होंने इस मत की कड़ी आलोचना की थी। निरुक्त की व्याख्या करते हुए दुर्ग ने शाकटायनोऽतिपाण्डित्याभिमानात् ऐसा लिखा है। यास्क ने उन वैयाकरणों की आलोचना को पूर्वपक्षरूप में रख कर उसका युक्तियुक्त १. उत्तर दिया हैं।' पूर्वपक्ष में शाकटायन के सत्य' शब्द के निर्वचन को व्यङ्गरूप से उद्धृत किया है । इसका समुचित उत्तर करते हुए यास्क ने लिखा है-यह शाकटायन की निर्वचन पद्धति का दोष नहीं हैं, अपितु उस व्यक्ति का दोष है जो इस युक्तियुक्त पद्धति को भले प्रकार नहीं जानता। अन्यत्र उल्लेख-वाजसनेय प्रातिशाख्य और ऋक्प्रातिशाख्य में शाकटायन के मत उद्धृत हैं यह हम पूर्व लिख चुके हैं । शौनक चतुरध्यायी २।२४ और ऋक्तन्त्र १११ में शायटायन के मत निर्दिष्ट हैं । .. चतुरध्यायी के चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ के कौत्सोय पाठ में लिखा है समासावग्रहविग्रहान् पदे यथोवाच छन्दसि । शाकटायनः तथा प्रवक्ष्यामि चतुष्टयं पदम् ॥ २५ १. देखो निरुक्त १।१४॥ २. दुर्गमतानुसार । स्कन्द की व्याख्या दुर्गाचार्य से भिन्न है। स्कन्द की व्याख्या युक्त है। ३. अथानन्वितेऽप्रादेशिके विकारे पदेभ्यः पदेतरार्धान् संचस्कार शाकटायनः । एतेः कारितं यकारादि चान्तकरणमस्तेः शुद्धं च सकारादि च । निरुक्त १॥ १३॥ • ४. योऽनन्वितेऽर्थे संचस्कार स तेन गह्य : सैषा पुरुषगर्दा न शास्त्रगर्दा । निरुक्त १।१४। तथा इसकी दुर्ग और स्कन्दव्याख्या ।। ५. द्र०-न्यु इण्डियन एण्टिक्वेरी, सितम्बर १९३८, पृष्ठ ३६१ । ३०
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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