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________________ १७८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास बृहद्देवता में शाकटायन के मतों का उल्लेख बहुत मिलता है।' वे प्रायः दैवतविषयक हैं। बृहद्देवता २।९५ में शाकटायन का एक उपसर्गविषयक मत उद्धृत है। बृहद्देवताकार ने कहीं कोई भेदक विशेषण नहीं दिया। अतः उसके ग्रन्थ में उद्धत सब मत निश्चय ५ ही एक शाकटायन के हैं । केशव ने अपने नानार्थार्णवसंक्षेप में शाक टायन को बहत उदधृत किया है। उसने एक स्थान पर शाकटायन का विशेषण आदिशाब्दिक दिया है। हेमाद्रिकृतच तुर्वर्गचिन्तामणि में भी शाकटायन का एक वचन उद्धृत है। चतुर्वर्गचिन्तामणि के अतिरिक्त सर्वत्र निर्दिष्ट शाकटायन एक ही व्यक्ति है यह निश्चित १० है। बहुत सम्भव है हेमाद्रि द्वारा स्मृत शाकटायन भी भिन्न व्यक्ति न हो। काल यास्क शाकटायन का नामोल्लेखपूर्वक स्मरण किया है। यास्क का काल विक्रम से लगभग तीन सहस्र वर्ष पूर्व निश्चित है। यदि १५ शाकटायन काण्व का शिष्य हो वा स्वयं काण्वशाखा का प्रवक्ता हो तो निश्चय ही इस का काल विक्रम से लगभग ३१०० वर्ष पूर्व होगा। ३००० वि० पूर्व तो अवश्य है । शाकटायन व्याकरण का स्वरूप शाकटायन व्याकरण अनुपलब्ध है। अतः वह किस प्रकार का २० था, यह हम विशेषरूप से नहीं कह सकते । इस व्याकरण के जो मत विभिन्न ग्रन्थों में उद्धृत हैं, उन से इस विषय में जो प्रकाश पड़ता है वह इस प्रकार है लौकिक वैदिक पदान्वाख्यान-निरुक्त, महाभाष्य और प्रातिशाख्यों के पूर्वोक्त प्रमाणों से व्यक्त है कि इस व्याकरण में लौकिक २५ १. बृद्देवता २।१,९५॥ ३॥१५६॥ ४११३८।। ६।४३॥ ७॥६६॥ ८।११, ६०॥ २. शाकटायनसूरिस्तु व्याचष्टे स्मादिशाब्दिकः ॥ ६२॥ भाग २, पृष्ठ ६ । ३. यत्तूक्तविरुद्धार्थ शाकटायनवचनम्—'जलाग्निभ्यां विपन्नानां संन्यासे वा गृहे पथि । श्राद्धं न कुर्वीत तेषां वै वर्जयित्वा चतुर्दशीम्' इति । चतुर्वग- ३० चिन्तामणि श्राद्धकल्प पृष्ठ २१५, एशिणटिक सो० संस्कः ।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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