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________________ पाणिनीय अष्टाध्यायों में स्मृत प्राचार्य १७६ वैदिक उभयविध पदों का अन्वाख्यान था। चतुरध्यायी के पूर्वनिदिष्ट (पृष्ठ १७७) कौत्सीय पाठ से विदित होता है कि शाकटायन ने पदपाठस्थ अवग्रह आदि निदर्शक प्रातिशाख्यसदृश कोई छन्दःसम्बन्धी ग्रन्थ रचा था। नागेश की भूल-नागेश भटट ने महाभाष्यप्रदीपोद्योत के प्रारम्भ ५ में लिखा है-शाकटायन व्याकरण में केवल लौकिक पदों का अन्वाख्यान था।' प्रतीत होता है उसने अभिनव जैनशाकटायन व्याकरण को प्राचीन आर्ष शाकटायन व्याकरण मान कर यह पंक्ति लिखी है। नागेश के लेख में स्ववचनविरोध भी है । वह महाभाष्य ३।३।१ के विवरण में पञ्चपादि उणादि सूत्रों को शाकटायन प्रणीत कहता है । १० पञ्चवादी उणादि में अनेक ऐसे सूत्र हैं जो केवल वैदिक शब्दों के व्युत्पादक हैं। इतना ही नहीं, प्रातिशाखयों में शाकटायन के व्याकरणविषयक अनेक ऐसे मतों का उल्लेख है जो केवल वेदविषयक हैं। अतः शाकटायन व्याकरण में केवल लौकिक पदों का अन्वाख्यान मानना नागेश की भारी भूल है । पञ्चपादी उणादिसूत्र शाकटायन- १५ विरचित हैं वा नहीं, इस विषय में हम उणादि प्रकरण में लिखेंगे । शास्त्रनिर्वचनप्रकार-निरुक्त १।१३ के 'एते, कारितं च यकारादि चान्तकरणमस्तेः शुद्धं च सकारदि च' के दुर्गाचार्य कृत व्याख्यान से विदित होता है कि शाकटायन ने सत्य शब्द की निरुक्ति 'इण गतौ' तथा 'प्रस् भुवि' इन दो धातुओं से की थी। दुर्गाचार्य ने इसी २० प्रकरण में लिखा है-शाकटायन प्राचार्य ने कई पदों की सिद्धि अनेक १. किं लौकिकशब्दमात्रं शाकटायनादिशास्त्रमधिकृतम् । नवाहिक पृष्ठ ६, कालम १, निर्णयसागर संस्क०। ... २. एवं च कृत्वा 'कुवापा' इत्युणासूित्राणि शाकटायनस्येति सूचितम । ३. ११२॥ २८१,८७,१०१,१०३,११६॥ ३॥६६॥ ४॥१२०, १४२ : ५ १४७, १७०, २२१॥ ४. ऋक्प्रातिशाख्य १११६॥ १३॥४९॥ वाज० प्राति० ३।६,१२।८८।। '४।५, १२६, १९२॥ ५. हमने गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज बनारस से प्रकाशित दशपादी-रणादिवृत्ति के उपोद्घात में भी इस विषय पर विशेष विचार किया है ।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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