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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
'सौवः " का सम्बन्ध 'सुवर्' और 'सौवर्गमनिकः' का 'सुवर्गमन' से से मानना अधिक युक्त है ।
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हमारा विचार है पाणिनीय व्याकरण में जहां-जहां ऐच् श्रागम का विधान किया है, वहां सर्वत्र इस प्रकार की उपपत्ति हो सकती ५ है । हमारे इस विचार का पोषक एक प्राचीन वचन भी उपलब्ध होता है । भगवान् पतञ्जलि ने महाभाष्य १।४।२ में पूर्वाचार्यों का एक सूत्र उद्धृत किया है - 'वोरचि वृद्धिप्रसङ्गे इयुवौ भवतः । इसका अभिप्राय यह है कि पूर्वाचार्य 'वि + प्रकरण + श्रण्' और ' सु + श्रश्व + अण्' इस अवस्था में वृद्धि की प्राप्ति में यणादेश को १० बाधकर 'इय' 'उव्' प्रदेश करते थे । अर्थात् वृद्धि करने से पूर्व 'वियाकरण' और 'सुवश्व' प्रकृति बना लेते थे, और तत्पश्चात् वृद्धि करते थे ।
प्रतीत होता है जब यण्व्यवधान वाले पदों का भाषा से उच्छेद हो गया, तब वैयाकरणों ने उन से निष्पन्न तद्धित प्रत्ययान्त प्रयोगों १५ का सम्बन्ध तत्समानार्थक यणादेश वाले शब्दान्तरों के साथ कर दिया ।
४. पाणिनि ने प्राचीन परम्परा के अनुसार एक सूत्र पढ़ा है'लोहितादिडाज्भ्यः क्यष् । तदनुसार 'लोहितादिगणपठित' 'नील हरित' आदि शब्दों से 'वा क्यषः '' सूत्र से नीलायति, नीलायते; हरि२० तायति, हरितायते दो-दो प्रयोग बनते हैं । लोहितादि० सूत्र पर वार्तिक कार कात्यायन ने लिखा है - लोहितडाज्भ्यः क्यञ् वचनम्, भृशादिवितराणि' । अर्थात् लोहितादिगणपठित शब्दों में से केवल लोहित शब्द से क्यष् कहना चाहिये, शेष नील हरित आदि शब्द् भृशादिगण में पढ़ने चाहियें ।
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भृशादिगण में पढ़ने से नील लोहित आदि से क्यङ् प्रत्यय होकर केवल 'नीलायते लोहितायते' एक-एक रूप ही निष्पन्न होगा । प्रतीत होता है पाणिनि ने प्राचीन व्याकरणों के अनुसार नील हरित प्रादि
१. तस्य श्रोत्रं सौवम् । शत० ८ | १ | २|५||
३. अष्टा० १|३|१०||
२. अष्टा० ३|१|१३॥
४. अधिक सम्भव है यह महाभाष्यकार का वचन हो ।