________________
संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ३१ 'इयडादिप्रकरणे तन्वादीनां छन्दसि बहुलम्" वात्तिक पर निम्न वैदिक उदाहरण दिये हैं
तन्वं पुषेम, तनुवं पुषेन । विध्वं पश्य, विषुवं पश्य । स्वर्ग लोकम् सुवर्ग लोकम् । त्र्यम्बकं यजामहे, त्रियम्बकं यजामहे । ___महाभाष्यकार ने यहाँ स्पष्टतया त्र्यम्बक और त्रियम्बक दोनों ५ पदों का पृथक्-पृथक् प्रयोग दर्शाया है । वैदिक-वाङ मय के उपलभ्यमान ग्रन्थों में कठ कपिष्ठल संहिता और बौधायन गह्यसूत्र' में त्रियम्बक पद का प्रयोग मिलता है। महाभारत में भी त्रियम्बक पद का प्रयोग उपलब्ध होता है। कालिदास ने कुमारसम्भव में त्रियम्बक
और त्र्यम्बक दोनों पदों का प्रयोग किया है । शिवपुराण ६।४।७७ १० में भी त्रियम्बक पद प्रयुक्त है। इस प्रकार वैदिक तथा लौकिक उभयविध वाङमय में 'त्रियम्बक' पद का निर्वाध प्रयोग उपलब्ध होता है। इससे स्पष्ट है कि 'त्रयम्बक' की मूल प्रकृति 'त्रियम्बक' है, त्र्यम्बक नहीं। ___ इसी प्रकार पाणिनीय गणपाठ ७।३।४ में पठित 'स्वर' शब्द के १५ उदाहरण काशिकावृत्ति में 'स्वर्भवः सौवः । अव्ययानां भमात्रे टिलोपः । स्वर्गमनमाह सौवर्गमनिकः' दिये हैं। तैतिरीय संहिता में 'स्वर' के स्थान में सर्वत्र 'सुवर्' शब्द का प्रयोग मिलता है, अतः
१. महाभाष्य ६।४।७७॥
२. अव देवं त्रियम्बकम्, त्रियम्बकं यजामहे । कठ-कपिष्ठल ७।१०। सम्पा- २० दक ने हस्तलेख में विद्यमान मूल शुद्ध 'त्रियम्बक' पाठ को साधारण व्याकरण के नियमानुसार बदलकर 'त्र्यम्बक' छापा है । देखो पृष्ठ ८७, टि. १,३
३. बौ० गृह्यशेष सूत्र ३।११, पृ० २६६ । . ४. येम देवस्त्रियम्बकः । शान्तिपर्व ६६।३३।। कुम्भघोण संस्करण । त्रियम्बको विश्वरूपः । सभापर्व १०।२१। पूना संस्करण ।
२५ ५. त्रियम्बकं संयमिनं ददर्श ।३।४४।। व्यकीर्यत त्र्यम्बकपादमूले ।३।६१।। कुमारसंभव ३।४४ पर अरुणगिरिनाथ लिखता है—'छन्दोविचितिकारैः इयङ उवङ् आदेशस्योक्तत्वात्' । नारायण ने इस पद पर 'त्रियम्बकं नान्यमुपास्थितासौ-इति भर्तृहरिप्रयोगात्' पाठ उद्धृत किया है।
६. पञ्चवक्त्रास्त्रियम्बकाः । रसार्णव तन्त्र २६०॥
30