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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
२. 'न्यङ कु" शब्द से विकार वा अवयव अर्थ में 'अन' प्रत्यय करने पर पाणिनि के मत में "नैयङ्कवम्' प्रयोग होता है,परन्तु आपिशलि के मत में 'न्याङ्कवम्' बनता है। वस्तुतः इन दोनों तद्धितप्रत्ययान्त प्रयोगों की मूल-प्रकृति एक न्यङ कु शब्द नहीं हो सकता। न्यङ कु शब्द 'नि+अङ्कु' से बना है। पूर्व-प्रदर्शित नियम के अनुसार सन्धि होकर न्यङ कु और नियङ कु ये दो रूप बनेंगे । अतः नियकु से 'नयङ कवम्' और न्यङ कु से 'न्याङ्कवम्' प्रयोग उपपन्न होंगे । अर्थात् दोनों तद्धित-प्रत्ययान्तों को दो विभिन्न प्रकृतियां किसी
समय भाषा में विद्यमान थीं । उनमें से यण्व्यवधान वाली 'नियङ कु' १० प्रकृति का भाषा से उच्छेद हो जाने पर उत्तरवर्ती वैयाकरणों ने दोनों तद्धितप्रत्ययान्तों का सम्बन्ध एक न्यङ कु शब्द से जोड़ दिया।
पाणिनि ने पदान्तस्यान्यतरस्याम् (७।३।६) सूत्र द्वारा 'श्वापदम् शौवापदम् जो दो रूप दर्शाये हैं, उनकी भी यही गति समझनी
चाहिये। १५ ३. गोपथ ब्राह्मण २।१।२५ 'त्रयम्बक' पद का प्रयोग मिलता
है। वैयाकरण इसकी निष्पत्ति 'त्र्यम्बक' शब्द से मानते हैं। यहां भी 'त्रि+अम्बक' में पूर्वोक्त नियमानुसार सन्धि होने से 'त्रियम्बक' और 'त्र्यम्बक' दो शब्द निष्पन्न होते हैं। अतः त्रयम्बक पद की निष्पत्ति 'त्रियम्बक' शब्द से माननी चाहिये । महाभाष्यकार ने
१. कुरङ्गसदृशो विकटबहुविषाणः [मृगविशेषः] । अष्टाङ्गहृदय, हेमाद्रिटीका सूत्रस्थान ३॥५०॥
. २. आपिशलिस्तु-न्यङ्कोच्भावं शास्ति, न्याङ्कवं चर्म । उज्ज्व. उणादिवृत्ति पृष्ठ ११ । तुलना करो-न्याङ्कवमिति स्मृत्यन्तरे प्रतिषेध प्रारभ्यते
न्याङ्कवमिति । भर्तृहरि, महाभाष्यदीपिका,पृष्ठ १०० (पूना संस्क०) । न्यङ्को२५ स्तु पूर्वे अकृतैजागमस्याभ्युदयाङ्गतां स्मरन्ति । यथाहुः-न्यको: प्रतिषेधान्न्या
ङ्कवम् इति । वाक्यपदीय वृषभदेव टीका पृ० ५५ । न्यङ्कोर्वेति केचित्, न्याङ्कवम, नैयङ्कवम् । प्रक्रिया-कौमुदी भाग १, पृ० ८१५ । प्रक्रियासर्वस्य तद्धित
प्रकरण, सूत्र ४५२, मद्रास संस्क०, पृ० ७२ । देखो-सरस्वतीकण्ठाभरण का ३० 'न्यकोश्च' (७।१।२३) सूत्र ।
३. नावञ्चेः । पञ्चपादी उणादि १।१७; दशपादी उणादि १३१०२।। ४. न य्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वी तु ताभ्यामैच् । अष्टा० ७।३।३॥