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________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १-कथासरित्सार में लिखा है-शर्ववर्मा ने सातवाहन नृपति को व्याकरण का बोध कराने के लिये कातन्त्र व्याकरण पढ़ाया था।' सातवाहन नृपत्ति आन्ध्रकुल का व्यक्ति है । कई ऐतिहासिक आन्ध्रकाल को विक्रम के पश्चात् जोड़ते हैं, परन्तु यह भूल है । आन्ध्रकाल वस्तुतः विक्रम से पूर्ववर्ती है।' २-शूद्रकविरचित पद्मप्राभृतक भाण में कातन्त्र का उल्लेख मिलता है। यह भाण उसी शूद्रक कवि की रचना है, जिसने मृच्छकटिक नाटक लिखा है। दोनों ग्रन्थों के प्रारम्भ में शिव की स्तुति है, और वर्णनशैली समान है । 'मृच्छकटिक' की प्रस्तावना से १० जाना जाता है कि शूद्रक नामा कवि ऋग्वेद सामवेद और अनेक विद्याओं में निष्णात, अश्वमेधयाजी, शिवभक्त महीपाल था। अनेक विद्वान् शूद्रक का काल विक्रम की पांचवीं शताब्दी मानते हैं, मह महती भूल है। महाराज शूद्रक हालनामा सातवाहन नृपति का समकालिक था, और वह विक्रम से लगभग ४००-५०० वर्ष पूर्ववर्ती १५ था। ३-चन्द्राचार्य ने अपने व्याकरण की स्त्रोपज्ञवृत्ति के प्रारम्भ में लिखा है 'सिद्धं प्रणम्य सर्वज्ञं सवीयं जगतो गुरुम् ।। लघुविस्पष्टसम्पूर्णम् उच्यते शब्दलक्षणम्' । २० इस श्लोक में चन्द्राचार्य ने अपने व्याकरण के लिये तीन विशेषण लिखे हैं -लघु विस्पष्ट और सम्पूर्ण । कातन्त्रव्याकरण लघु और १. लम्बक १, तरङ्ग ६, ७ । २. द्र०-५० भगवद्दत्त कृत भारतवर्ष का इतिहास द्वि० संस्करण । ३. एषोऽस्मि बलिभुग्भिरिव संघातवलिभिः कातन्त्रिकरवस्कन्दित इति । २५ हन्त प्रवृत्तं काकोलूकम् । सखे दिष्ट्या त्वामलूनपक्षं पश्यामि । किं ब्रवीषि ? का चेदानीं मम वैयाकरणपारशवेषु कातन्त्रिकेष्वास्था । पृष्ठ १८ । ४. ऋग्वेदं सामवेदं गणितमथ कलां वैशिकी हस्तिशिक्षा, ज्ञात्वा शर्वप्रसादात् व्यपगततिमिरे चक्षुषो चोपलभ्य । राजानं वीक्ष्य पुत्रं परमसमुदयेना श्वमेधेन चेष्ट्वा, लब्ध्वा चायुः शताब्दं दशदिनसहितं शूद्रकोऽग्नि प्रविष्टः॥ ३० ५. संस्कृतकविचर्चा, पृष्ठ १५८-१६१ । ६. द्र०–६० भगवदत्त कृत भारतवर्ष का इतिहास, द्वि० संस्करण, पृष्ठ २६१-३०६ ।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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