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________________ ७८ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६१७ विस्पष्ट है, परन्तु सम्पूर्ण नहीं है । इसके मूल ग्रन्थ में कृत्प्रकरण का समावेश नहीं है,अन्यत्र भी कई आवश्यक बातें छोड़ दी हैं। पाणिनीय व्याकरण सम्पूर्ण तो है, परन्तु महान् है, लघु नहीं। हमारा विचार है कि चन्द्राचार्य ने 'सम्पूर्ण' विशेषण कातन्त्र की व्यावत्ति के लिये रखा है । चन्द्राचार्य का काल भारतीय गणनानुसार ५ न्यूनातिन्यून विक्रम से १००० वर्ष पूर्व है, यह हम पूर्व (पृष्ठ ३६८३७१) लिख चुके हैं। ४-महाभाष्य ४ । २ । ६५ में लिखा है'संख्याप्रकृतेरिति वक्तव्यम् । इह मा भूत्-माहावातिकः, कालापकः। अर्थात्-सूत्र (ग्रन्थ) वाची ककारोपध प्रातिपदिक से 'तदधीते' तद्वेद' अर्थ में उत्पन्न प्रत्यय का जो लुक् विधान किया है, वह संख्याप्रकृतिवाले (=संख्यावाची शब्द से बने हुए) प्रातिपदिक से कहना चाहिये । यथा अष्टकमधीते अष्टकाः पाणिनीयाः, दशका वैयाघ्रपद्याः । यहां अष्टक और दशक शब्द संख्याप्रकृतिवाले हैं। इनमें १५ अष्ट और दश शब्द से परिमाण अर्थ में सूत्र अर्थ गम्यमान होने पर कन् प्रत्यय होता है ।' वार्तिक में संख्याप्रकृति ग्रहण करने से 'माहावार्तिकः, कालापकः' में वुन् का लुक् नहीं होता। क्योंकि ये शब्द संख्याप्रकृतिवाले नहीं हैं। __ ये दोनों प्रत्युदाहरण 'संख्याप्रकृतिः' अंश के हैं । इनमें सूत्र वाच- २० कत्व और कोपधत्व अंश का रहना आवश्यक है । अतः 'कालापकाः' प्रत्युदाहरण में निर्दिष्ट 'कलापक' निश्चय ही किसी सूत्रग्रन्थ का वाचक है, और पूर्वोद्धृत व्युत्पत्ति के अनुसार वह कातन्त्र व्याकरण का वाचक है। हरदत्त और नागेश की भूल-हरदत्त और नागेश ने महाभाष्य २५ के 'कालापकाः' प्रत्युदाहरण की व्याख्या करते हुए लिखा है-कलापी द्वारा प्रोक्त छन्द का अध्ययन करनेवाले 'कालाप' कहाते हैं । उन कालापों का प्राम्नाय 'कालापक' होगा । संख्याप्रकृति ग्रहण करने से १. तदस्य परिमाणम्, संख्याया: संज्ञासंघसूत्राध्ययनेषु । ५।१॥ ५७, ५८॥
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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