SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास व्याकरण के सूत्र उद्धृत किये हैं।' पाणिनीय व्याकरण में ऐसा कोई नियम उपलब्ध नहीं होता। अर्वाचीन वैयाकरण 'यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्" इस कल्पित नियम के अनुसार 'क्षेणोति अर्णोति तर्णोति' प्रयोगों की कल्पना करते हैं, जो सर्वथा अयुक्त है। वैयाकरणों के शब्दनित्यत्व पक्ष में 'यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्' की कल्पना उपपन्न ही नही हो सकती, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि 'क्षणोति अर्णोति तर्णोति' पदों का व्यवहार सम्प्रति उपलभ्य मान संस्कृत वाङमय में कहीं नहीं मिलता, परन्तु 'क्षिणोति ऋणोति' १० आदि प्रयोग उपलब्ध होते हैं । ३. चाक्रवर्मण व्याकरण के अनुसार 'द्वय' पद की सर्वनाम संज्ञा होती थी, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार केवल जस् विषय में विकल्प से इसकी सर्वनाम संज्ञा होती है। हमारे विचार में पाणिनीय व्याकरण के संक्षिप्त होने के कारण १५ उसमें कुछ नियम छूट गये हैं। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने स्पष्ट लिखा है नैकमुदाहरणं योगारम्म प्रयोजयति ।। अर्थात् एक उदाहरण के लिए सूत्र नहीं रचे गए। ४. राजशेखर ने काव्यमीमांसा में लिखा हैतद्धि शास्त्रप्रायोवादो यदुत तद्धितमूढाः पाणिनीयाः।" अर्थात्-शास्त्रों में यह प्रायोवाद है कि पाणिनीय तद्धित में मूढ़ होते हैं। १. धातुवृत्ति, पृष्ठ ३५६, ३५७ । २. महाभाष्यप्रदीपविवरण ३ । १। ८० ॥ २५ ३. देखो पृष्ठ ३७, टि. १, पृष्ठ १६६-१७१ । ४. क्षिणीति, रघुवंश २ ॥ ४० ॥ क्षिणोमि, यजुः ११ । १२॥ ऋणोति, यजुः ३४ ॥ २५ ॥ ऋ० १ । ३५। ६ ॥ दुर्गृहीत क्षिणोत्येव शस्त्रं शास्त्रमिवाबुधम् । चरक सिद्धि० १२१७८॥ ५. पूर्व पृष्ठ ३७, १६६ । ६. महाभाष्य १६६।। तुलना करो-नैकं प्रयोजनं योगारम्भं प्रयोज३० यति । महाभाष्य १।१।१२, ४१॥ ३॥११६७॥ ७. काव्यमीमांसा अ०६।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy